अमित चमड़िया

कहने और परोसने के तरीके से किसी संवाद के प्रभाव को कम या ज्यादा किया जा सकता है। हाल ही में खूब प्रचारित हुए एक वीडियो पर नजर पड़ी। उसमें मौजूद दृश्य के मुताबिक चार-पांच साल का एक लड़का आराम की अवस्था में लेटी हुई एक भैंस के थान में अपना मुंह लगा कर दूध पीने की कोशिश कर रहा था। भैंस ने किसी कारण से अपना बायां पैर लड़के की तरफ उठाया, जो लड़के से छू गया। इससे लड़का डर कर दूर हट गया। फिर उसने एक खड़ी गाय के थान में अपना मुंह लगाया और दूध पीने लगा। इसके बाद उसने गाय की पूंछ खींच दी। लेकिन इस पर गाय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इसके बाद वीडियो के अंत में यह लिखा दिखाया गया कि ‘इसीलिए गाय हमारी माता है।’ देखने से यह तो बिल्कुल स्पष्ट हो था कि यह वीडियो किसी खास उद्देश्य से बनाया गया है। मेरा मानना है कि यह दृश्य स्वाभाविक नहीं है, लेकिन जिस तरीके से इसे परोसा गया था, ऐसे तरीके बच्चों पर खासा प्रभाव छोड़ते हैं। बच्चों के लिए यह समझना मुश्किल है कि ऐसे वीडियो बनावटी हैं या स्वाभाविक।

सच यह है कि भैंस गाय की तुलना में अपेक्षया ज्यादा शांत और सुस्त स्वभाव की होती है। आमतौर पर वह जल्दी किसी के प्रति आक्रामक नहीं होती है। हां, कोई अप्रत्याशित कारण हो तो वह कोई भी प्रतिक्रिया दे सकती है। लेकिन संदर्भ वीडियो में यह दिखाया गया कि भैंस बायां पैर चलाती है, जिससे बच्चा डर जाता है। संभावना यह है कि भैंस ने किसी अन्य कारण से अपने पैर को उठाया हो। सवाल है कि क्या किसी जानवर के ऐसे व्यवहार करने या शांत रहने से यह तय किया जा सकता है कि फलां जानवर को कौन-सा दर्जा दिया जाए? क्या किसी की ‘माता’ अपने बच्चों को कभी नहीं मारती है? खासतौर पर पारंपरिक समाजों में तो अभिभावकों का व्यवहार बच्चों को लेकर सरलीकृत नहीं है! यों गाय के किसी वजह से आक्रामक हो जाने के चलते लोगों के घायल होने की घटनाएं भी देखने को मिलती रहती है। मेरी बहन के आंख के ऊपर एक निशान आज भी है, जो गाय की सींग से लगी चोट का है। यह चोट किसी भी जानवर की हो सकती थी। यह छिपा नहीं है कि अतीत से लेकर वर्तमान तक गाय को लेकर समाज में ढेरों कहानियां गढ़ी गई हैं कई हिंसक घटनाएं घटी हैं।

दरअसल, लोगों ने अपने-अपने उद्देश्य से जानवरों की भी जाति और धर्म तय कर दी है। सूअर को लेकर भी धार्मिक विवाद पुराना है। बचपन में गिरगिट और मकड़ी की कहानी को कई बार सुना कर दिमाग को प्रदूषित किया गया। कई लोग इसे सच मान कर आने वाली पीढ़ी के भी दिमाग में दुराग्रह भरते या जहर घोलते हैं। हो सकता है कि ऐसी कहानी के सुनने के बाद कई बच्चों ने गिरगिट मारे हों! बाघ, चूहा, सांप और उल्लू आदि पशु-पक्षी को किसी धर्म के देवी-देवताओं से जोड़ कर इनके महत्त्व को असामान्य रूप में दर्शाया गया।हमने अपने समाज को तो कई खंडों में बांटा ही है, पशु-पक्षियों के समाज में को भी हमने नहीं छोड़ा। उनके समाज को भी हमने ‘पवित्र’ और ‘अपवित्र’ या शुभ-अशुभ के आधार पर कई स्तरों में बांट दिया हैं। नीलकंठ पक्षी को देखते ही हम अपना ‘गुड लक’ (शुभ भाग्य) मान लेते हैं, दूसरी तरफ किसी नए काम के लिए घर से निकलते हुए अगर कौवा दिख जाए तो हम इसे अशुभ मान लेते हैं। बेचारे कौवा को क्या मालूम है कि जमीन पर फैली गंदगी को उसके द्वारा साफ करने के काम को कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता है।

यों भी हमारे समाज में कूड़ा-कचरा साफ करने वाले लोग ‘अपवित्र’ माने-समझे जाते हैं। गधा शब्द तो खराब अर्थ और अक्सर गाली के रूप में भी प्रयोग होता है, जबकि गधा कितना परिश्रम करता है, यह वही लोग जानते हैं जो ईंट आदि ढोने में इस जानवर का उपयोग करते हैं। बिल्ली के रास्ता काटने पर लोग अपने बढ़ते कदम इस डर से पीछे कर लेते हैं कि कहीं आगे बढ़ने से कोई अप्रिय घटना न हो जाए। ऐसा भी होता है जब बिल्ली के रास्ते से गुजरते देखने के बाद अचानक कोई चालक वाहन का ब्रेक लगा देता है। यानी बिल्ली के काटे हुए रास्ते से पहले ही हादसा। इस अंधविश्वास की व्याख्या करना तक लोग जरूरी नहीं समझते। लेकिन यह डर उन लोगों के लिए नहीं होता, जो बिल्ली पालते हैं। कछुआ लोगों के लिए इतना शुभ होता है कि लोग अलग-अलग पदार्थ से बनी कछुआ की मूर्ति को अपने अतिथि कक्ष या शयनकक्ष में रखते हैं। एक बात तो तय है कि जो पशु-पक्षी हमारे देश और समाज के दायरे से बाहर हैं, अगर वे यह सब समझ सकते तो अपने को बहुत ‘भाग्यशाली’ मानते, क्योंकि उन्हें इस बात का खतरा नहीं है कि लोग उन्हें ‘पवित्र-अपवित्र’ और ‘अच्छे-बुरे’ के प्रतीकों में बांटेंगे और किसी खास धर्म से जोड़ेंगे।