जब किसी भी सत्ता के खिलाफ जनता आवाज उठाती है या दो पक्षों को अपने बीच में चुनावी फैसला करना-कराना होता है तो नारे का सहारा लिया जाता है। नारे पोस्टर बन कर दीवारों पर चिपकते हैं, छोटे-बड़े होर्डिंग पर प्रकट होते हैं। नारों में दोनों पक्ष खुद को सही बताने से ज्यादा दूसरे को गलत बताने की कोशिश करते हैं। कुछ नारे हमारी स्मृति में लंबे समय तक जीवित रहते हैं और वक्त-जरूरत लोगों के काम आते रहते हैं। हम बचपन से कुछ नारे सुनते और लगाते आए हैं। ये नारे मनुष्य के राजनीतिक-सामाजिक संघर्ष के इतिहास से जुड़े हैं। कमजोरों और आजादी के खयालों के साथ ये हमेशा रहे हैं और आगे भी रहेंगे, मसलन- ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है’, ‘वंदे मातरम्’, ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ आदि।
दरअसल, नारों के माध्यम से हम पूरे देश के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को अपने सामने घटित होते हुए देखते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य क्या, लगभग हर विषय को नारे छूते दिखते हैं। कुछ समय पहले मैं बिहार गया था। तब वहां विधानसभा चुनावों की सरगर्मी चल रही थी। चारों तरफ बड़े-बड़े होर्डिंग और उन पर नेताओं की बड़ी-बड़ी फोटो थी। सभी नारे ललक और ललकार के अनुरूप थे। मैंने पटना के मुख्य मार्गों पर लिखे कुछ नारों को अपनी डायरी में दर्ज कर लिया। भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन की ओर से जो नारे दर्ज किए गए थे, उनमें से कुछ यों थे- ‘हत्या और लूट हो रही दिन-रात है, हां भैया बिहार में बहार है’, ‘युवा घर छोड़ कर ढूंढ़ने जाता रोजगार है, हां भइया बिहार में बहार है’, ‘बदलिए सरकार, बदलिए बिहार’, ‘परिवर्तन को तैयार बिहार’।
वहीं राजद-जदयू महागठबंधन के नारे कुछ यों थे- ‘आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’, ‘झांसे में न आएंगे, नीतीश को जिताएंगे’, ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’, ‘न जुल्मों वाली न जुल्मी सरकार, गरीबों को चाहिए अपनी सरकार’।
जाहिर है, ये आम जनता के संघर्ष के बरक्स सत्ता हासिल करने के मकसद से अलग-अलग राजनीतिक दलों या पक्षों की ओर से गढ़े गए नारे थे, लेकिन नारे ही थे! नारों का हासिल दोनों पक्षों के लिए चाहे जो रहा हो, लेकिन लोकतंत्र कहता है और उम्मीद भी यही की जानी चाहिए कि भारी बहुमत से जीत हासिल करने के बाद सरकार जो भी काम करेगी, वह बिहार की समूची जनता के हित में होगा।
मगर कई बार लगता है नारे हैं, नारों का क्या! कोई भी पार्टी नारे देते हुए अपने पक्ष के कामकाज और प्रदर्शन की ओर गौर करना जरूरी नहीं समझती। बिहार में भाजपा गठबंधन ने चुनाव जीतने के लिए नारे जरूर दिए, लेकिन उनकी कसौटी पर अपने पक्ष को देखना जरूरी नहीं समझा। जहां तक ‘हत्या और लूट’ की बात है तो इनके लिए सबसे ज्यादा आज दिल्ली चर्चित है, जहां की पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन है। इसी तरह, मध्यप्रदेश में तीसरी बार भाजपा की जीत के बावजूद व्यापमं घोटाला लूट और आरोपियों की लगातार हत्याओं के कारण सुर्खियों में है। हरियाणा में दलितों के साथ बदसलूकी और उनकी हत्याओं का सिलसिला जारी है। जहां तक पलायन का संबंध है तो सिर्फ बिहार ही नहीं, देश के अन्य भागों के युवा भी केवल अपना राज्य नहीं, देश भी छोड़ कर विदेश जा रहे हैं।
बहरहाल, किसी भी सपने को देश की जनता के सुख और समर्थन के रास्ते से गुजरना पड़ता है। जनता को अगर लग जाता है कि नेताओं और उनकी पार्टियों ने नारे तो बड़े-बड़े लगाए हैं, मगर जमीन पर किया कुछ नहीं है तो वह अगली बार अपना फैसला बदल भी देती है। बिहार की गरीब जनता अब पहले की तरह नहीं रही। उसकी जागरूकता का स्तर बढ़ा है। उसे जाति-धर्म के नाम पर बरगलाना अब उतना आसान नहीं है, जितना पहले था। अब वह बड़े-बड़े नारों में नहीं, काम में विश्वास करती है। अब अगर किसी राजनीतिक दल ने उसे दुख पहुंचाया तो वह इसका चुनावी बदला लेगी।
समय आ गया है कि तमाम पार्टियां इस पर विचार करें कि नारे चुनाव जीतने के लिए जरूर दिए जाएं, लेकिन सत्ता मिलने पर उन पर अमल भी किया जाए। वरना अब सरकार की फजीहत भी इन नारों के कारण होती है। यह छिपा नहीं है कि ‘अच्छे दिन’ भाजपा पर कितना भारी पड़ रहा है और पंद्रह लाख रुपए हर भारतीय को दिलाने का मोदीजी के वादे पर इतना दबाव पड़ा कि अमित शाह को इसे जुमला बताना पड़ा। दरअसल, अब जनता नारों को गंभीरता से लेती है और उस पर सवाल करती है।
नारे चुनावी कविता हैं। लोकमन को लुभाने वाले नारे एक चुनाव में रचे जाते हैं, कई-कई चुनावों में काम आते हैं। पहले नारे दीवारों पर दर्ज होकर या स्मृतियों में जगह बना कर बचे रहते थे। अब वे दृश्य माध्यमों के जरिए रिकॉर्ड में दर्ज होकर और स्थायी हो रहे हैं।