राज कमल
बात कुछ विचित्र लगेगी, मगर सौ फीसद सच है। एक रात मेरा नवजात उपन्यास मेरे सपने में आया। दुखी, दयनीय अवस्था में था, थोड़ा क्षुब्ध भी। मैं किसी अनहोनी की आशंका से घबरा गया। संतति का जन्मदाता तो जीवनपर्यंत उसके मंगल की कामना करता है। फिर भला मैं उसकी दारुण अवस्था देख कर विचलित कैसे न होता। मैंने बड़े लाड़ से पूछा, ‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है? यह क्या हाल बना रखा है तुमने, और कुछ नाराज भी लग रहे हो।’ उसने मुझे कुछ पल घूर कर देखा। कहा, ‘हां, मैं बहुत दुखी हूं और नाराज भी। मेरे साथ अन्याय जो हुआ है। मुझे भी दुनिया देखनी थी, विश्व पुस्तक मेले की रौनक में शामिल होना था। सुधी पाठक और शुभचिंतकों के हाथों में झूलना था।
अपनी वाहवाही पर मुग्ध होना था।’ वह अपनी रौ में बोले जा रहा था, ‘सुना था, आपात स्थिति में जन्मे बच्चों को विशेष सुविधाएं मिलती हैं। हवाई जहाज में जन्मा तो आजीवन हवाई यात्रा मुफ्त, रेलगाड़ी में पैदा हो गया तो रेल में सफर मुफ्त। मतदान, अस्पताल या सरकारी दफ्तर की लाइन में जन्मने की भी समाचारों में सुर्खियां बनती हैं। मैं महामारी के आपातकाल में जन्मा तो किसी ने कायदे से बधाई तक नहीं दी। कोई जश्न नहीं मनाया! मेरा कुछ भी मनचाहा नहीं हो सका… मैं थक गया हूं, इंतजार करते-करते।’ वह रुआंसा हो गया।
ओह! पुस्तक मेला न होने से किताबें भी दुखी हुई हैं! मैं सोच में पड़ गया। यों तो प्रकाशक, लेखक और सुधी पाठक भी ‘मेला’ न होने से हताश, उदासीन हुए हैं। प्रकाशक का दुख है कि उसे व्यापार का खास अवसर नहीं मिला। जबकि मुदित होने के अनेक कारण हैं, जैसे स्टाल के महंगे किराए की बचत। न चाहते हुए भी लेखकों की चाय-पानी के खर्चे की बचत। रायल्टी मांगने वाले लेखकों से सामना न होने का सुख भी।
लेखकों का दुख यह कि उनकी नवजात पुस्तक के विमोचन की रस्म विधिवत नहीं हुई। वे महान लेखक घोषित होने से वंचित रह गए। दोस्तों से रूबरू मुलाकात नहीं हुई, ठहाके नहीं लगे। मुफ्त की चाय पीने का सुख जाता रहा। नवोदित रचनाकारों पर उपकार तथा प्रतिष्ठितों से संपर्क साधने का अवसर धुल गया। पाठकों का दुख भी कम नहीं है। वे घर-बार से छूट कर तफरीह नहीं कर पाए। मित्रों से मुलाकात, लेखकों के दर्शन, उनके साथ सेल्फी का आनंद मारा गया। विशेष छूट पर किताबें खरीदने के लाभ से वंचित हुए।
सोच से उबर कर मैंने अपने नवजात उपन्यास को सांत्वना दी, ‘अभी तुम दो साल के भी नहीं हुए हो, सारी जिंदगी पड़ी है मेले-ठेले देखने को।’ ‘सब आपका दोष है।’ उसने कहा। मैं चकित हुआ और उसके आरोप से आहत भी। ‘कैसे?’ मैंने पूछा। ‘मुझे लिख कर कोरोना काल में अपने से दूर क्यों कर दिया? मैं क्या आप पर बोझ बन रहा था?’ ‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। यह मेरे और तुम्हारे सौभाग्य की बात थी। प्रकाशक ने बड़े मनुहार और आदर से तुम्हें मांगा था। मुझे भरोसा दिया कि तुम्हें प्यार से रखेगा और वह कभी मुझे भी भूलेगा नहीं। मैं खुशी से गदगद हो गया था। मैंने उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ तुम्हें उसे सौंप दिया।’
‘दरअसल, आपने मुझे बेच दिया है।’ उसने तल्खी से कहा। ‘मैंने कमाया है और आपको पता भी नहीं। वह मेरा संरक्षक नहीं, साहूकार है। उसे मुनाफा चाहिए, जिसके लिए मुझे कहीं भी, किसी भी माध्यम से बेच देगा। आपको पता भी नहीं चलेगा कि मेरे साथ क्या हो रहा है।’ अपना आवरण दिखाते हुए उसने कहा, ‘देखो मुझे, इतनी भयावह, हाड़ गलाने वाली ठंड में भी मुझे मोटे-गरम कपडे (हार्ड बाउंड) नहीं पहनाए, पुरानी कमीज (पेपर बैक) में ठिठुर रहा हूं।’
अपने बच्चे की हालत पर मुझे बहुत तरस आया, उससे अधिक खुद पर भी। वह सच कह रहा है, मैं उसे कैसे बचा सकता हूं। अब साहू तो मेरे संपर्क में ही नहीं है। वह मेरे वाट्सऐप मैसेज पर ध्यान नहीं देता, फोन नहीं उठाता। अपने नवजात को कैसे समझाऊं कि जीवन विश्वास रख कर ही जिया जाता है। मैंने उस पर अटूट विश्वास किया। शायद यही मेरा दोष था। उसने भरोसा तोड़ दिया, मैं अब कर भी क्या सकता हूं। मैं गहरी और गमगीन सोच में था। वह सपने से लोप हो गया। मेरी नींद टूट गई थी। फिर मैं देर तक सो नहीं सका। अब मुझे लग रहा है जैसे मैंने ही अपने पुत्र को निर्वासित किया है। अब उसके विछोह में राजा दशरथ जैसी पीड़ा महसूस कर रहा हूं। अंत में एक सुझाव है, साहूकार के नाम आदि की अटकलें लगाना फिजूल है। क्योंकि ‘जिधर देखता हूं, उधर तू ही तू है…।’