पीयूष द्विवेदी
अभी दिल्ली में धुंध क्या छाई, तमाम कंपनियों के पौने बारह हो गए। वायु प्रशोधक उपकरणों (एअर प्योरीफायर) की कंपनियों के प्रचार संदेशों की बाढ़ आ गई। जितनी कंपनियां, उतने दावे। कोई पांच तो कोई पच्चीस हजार रुपए में हमें स्वच्छ सांस उपलब्ध कराने की गारंटी देने लगा। कंपनियां खुद ही यह दावा भी करने लगीं कि वायु प्रशोधकों की बिक्री में भारी इजाफा हुआ है। एक कंपनी ने तो अपनी साप्ताहिक बिक्री पचास गुना तक बढ़ने की बात कही है। यह बाजार द्वारा समाज को बरगलाने और उसे नियंत्रित करने का एक उदाहरण भर है। वास्तव में, आज बाजार आदमी के जीवन में पूरी तरह घुसपैठ करता जा रहा है।
पर्वों-त्योहारों का बाजारीकरण अब सामान्य हो चला है। लगता है कि जैसे समाज के लिए बाजार की नहीं, बाजार के लिए समाज की स्थापना की गई हो। रोटी, कपड़ा, मकान आदि बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुओं पर तो खैर कमोबेश बाजार का नियंत्रण रहता आया है। अब बाजार इनसे कहीं आगे अपने पांव पसार रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर भी बाजार ने डंके की चोट पर कब्जा जमा रखा है। अब वह पानी, हवा जैसी प्राकृतिक वस्तुओं पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर रहा है। हवा बेचने की कहानी भी अजीब ही है।
पानी जैसी सर्वसुलभ वस्तु पर बाजार ने किस कदर कब्जा जमा लिया है, जल प्रशोधक (वाटर प्योरीफायर) उपकरणों के बढ़ते बाजार से हम इसे देख चुके हैं। इस बात को हम ‘ट्रांसपेरेंसी मार्केट रिसर्च’ नामक अमेरिकी संस्था की रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़ों से बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वाटर प्योरीफायर का बाजार, जो 2015 में 11 करोड़ डॉलर का था, 2024 में 41 करोड़ डॉलर तक पहुंच जाने की संभावना है।
लेकिन पानी का धंधा सिर्फ जल प्रशोधक उपकरणों तक सीमित नहीं है। अब शहरी इलाकों में खराब हो रहे पानी के आधार पर लोगों का भयादोहन करते हुए गली-गली में फिल्टर किए पानी का पूरा एक व्यापारिक ढांचा खड़ा हो गया है। बीस लीटर पानी घर-घर पहुंचाने की कीमत शहरी इलाकों में लगभग दस से लेकर तीस रुपए तक है। गनीमत है कि ग्रामीण इलाके अभी इससे बचे हुए हैं। हवा, पानी जैसी प्राकृतिक वस्तुओं पर बाजार का बढ़ता वर्चस्व चिंतित करने वाला है, मगर सुरसामुखी बाजार की तृप्ति इतने से भी होती नहीं दिख रही। भौतिक और प्राकृतिक वस्तुओं के बाद अब वह नींद, भूख, सेक्स, शांति जैसी आदमी के शरीर और मन से जुड़ी चीजों को भी अपने चंगुल में कर रहा है।
बाजार में आज दो सौ से लेकर दस हजार और उससे भी अधिक मूल्य तक के स्मार्ट बिस्तर, गद्दे, रजाई और तकिए मिल रहे हैं, जिनके विषय में ऐसा दावा किया जा रहा है कि इन पर सोते ही नींद आ जाएगी। दिमाग को तरोताजा करने के नुस्खे तक बाजार के पास उपलब्ध हैं। दिमाग को तरोताजा करने के लिए कई तरह के खिलौनों से लेकर महंगे कैसेट उपलब्ध हैं। आप अपनी किसी आवश्यकता के लिए किसी वस्तु की कल्पना कीजिए, उससे पहले बाजार वह वस्तु लेकर हाजिर हो जाता है।
बाजार की स्थिति हमें उस चिकित्सक जैसी प्रतीत होती है, जो पहले रोग को बढ़ाता है, फिर धीरे-धीरे उसका उपचार करता है। विद्रूप यह कि कमाता वह दोनों ही स्थितियों में है। बाजार का भी यही चरित्र हो चला है। जिन समस्याओं के समाधान के रूप में तरह-तरह के उत्पाद बेच कर बाजार मोटा माल कमा रहा है, उन समस्याओं का भी स्रोत वही है। हवा और पानी के प्रदूषण के लिए आज बाजार एक तरफ हवा प्रशोधक बेच रहा है तो दूसरी तरफ प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियां और नाना प्रकार के रसायनों से बाजार पटा पड़ा है। इसे ऐसे भी समझिए कि जो कंपनियां मोबाइल और एसी जैसे प्रदूषणकारी उत्पाद बना रही हैं वही एअर प्योरीफायर भी तैयार कर रही हैं।
वास्तव में बाजार तो अपने चरित्र का ही अनुपालन कर रहा है। दोष बाजार का नहीं, समाज का है। विशेष तौर पर शहरी समाज में लगातार बढ़ रही विलासिता और सुविधाभोगिता की प्रवृत्ति ने उसे बाजार के हाथों की कठपुतली बना दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसके पास जितनी आर्थिक क्षमता है वह बाजार के हिसाब से उतना ही बेचैन है और जिसके पास क्षमता नहीं है, वह क्षमता अर्जित करने की कवायदों में लगा है।
अब सुविधाभोग की वस्तुओं को अपने स्टेटस से जोड़कर देखने का चलन भी जोर पकड़ चुका है। ये सब वे कारण हैं, जिनसे समाज, जिसे बाजार का नियमन करना चाहिए, वह बाजार के अधीन होता जा रहा है। संतोष की भावना लगभग समाप्त हो चुकी है। जरूरत है कि समाज संतोष के मार्ग को अपनाकर बाजार की इस अधीनता से बाहर आए। असल में बाजार की फितरत यही है कि किसी तरह उपभोक्ताओं को अपने चंगुल में फंसाए रखे। इसलिए वह तरह-तरह की रणनीति अपनाता है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि जरूरतों का कोई अंत नहीं है, लेकिन गैरजरूरी वस्तुओं का संग्रहालय न बनाया जाए घर को। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है- अल्पसंतोषी, सदा सुखी।