प्रदीप कुमार राय
हम सब कुछ न कुछ कहना चाहते हैं। कोई मजबूरी हो तो बात अलग है, लेकिन देखे-सुने पर कुछ कहने की चाह साधारण व्यक्ति में भी होती है। स्वतंत्र जीव होने के नाते मन की बात कहना मनुष्य का अधिकार है। लेकिन केवल मनमर्जी का कहने पर ही उतर आए, तो न इसमें व्यक्ति का हित है, न समाज का।
पिछले कुछ समय से अधिकतर लोगों में देश, दुनिया को लेकर अपनी राय रखने की ललक लगातार बढ़ रही है। ज्यादातर को लगता है कि बस मुझे अभी इसी समय कुछ कहना है। सोशल मीडिया पर आठों पहर सवाल दागने वाले बहुतेरे हर रोज यह सोचते हैं कि मेरा सवाल ही सबसे सार्थक है, इसकी कोई काट नहीं।
किसी विषय पर सुविचारित बात रखना श्रेष्ठ नागरिक की निशानी है। लेकिन अब तुरंता-फुर्ती की प्रतिक्रिया को संगत राय समझा जाने लगा है। हर कहने वाला यही कहता है कि मेरा एक सवाल है… मैं सवाल पूछ रहा हूं। जबकि वे अधिकतर प्रतिक्रियाएं होती हैं। सवाल तो उससे बहुत आगे की चीज है। प्रतिक्रिया को सवाल मानने की भूल तो संसार में बड़ा भटकाव पैदा कर देगी।
वास्तविक प्रश्न समाज में स्वस्थ समझ बनाता है। अच्छा प्रश्न तो कुछ ऐसा हो जाता है- ‘औरन को बौद्धिक करे, आप भी बौद्धिक होय।’ यानी सवाल पूछने और जवाब देने वाले दोनों की समझ उन्नत होती है। अब यह जानना जरूरी है कि सार्थक प्रश्न कैसे हो सकता है, कौन कर सकता है!
भारतीय ज्ञान परंपरा में देश दुनिया की नीति, रणनीति के मामले पर असली प्रश्न ‘अधिकारी’ का माना गया है। भारतीय शब्दावली के अनुसार ‘अधिकारी’ कोई अंग्रेजी वाला आफिसर नहीं। इसका अर्थ है किसी विषय पर बरसों तपस्या करके बात कहने का अधिकार पा लिया है। लेकिन उसमें यही ज्ञान परंपरा यह शर्त भी रखती है कि अगर तर्क के आधार पर बात तोता भी कहेगा तो उसकी बात मानी जाएगी, और अगर खुद गुरु शुक्राचार्य भी तर्क रहित बात करेंगे, तो कतई स्वीकार नहीं। यानी विषय पर सवाल करने का अधिकारी बनने के बावजूद शर्त यह है कि सवाल में लाग लपेट न हो, तथ्य पूरे हों।
इसी तरह एक आम व्यक्ति भी अपने साथ होते अन्याय को लेकर या सामाजिक और पेशेवर अनुभव के अनुसार समाज-हित के मामलों पर प्रश्न कर सकता है। लेकिन प्रश्न वह तब माना जाएगा जो हर पक्ष को रख कर बात करे और नया तथ्य प्रस्तुत करे। हर व्यक्ति इतना सक्षम नहीं होता। ऐसे में वह ध्यान रखे कि वह प्रश्न नहीं कर रहा, प्रतिक्रिया कर रहा है। अपनी प्रतिक्रिया की जिम्मेदारी को समझे।
सार्थक सवाल पर भारतीय परंपरा में बच्चों को बड़ा सम्मान मिला। प्रश्नोपनिषद में एक शिष्य ने प्राण की व्याख्याओं पर सवालों की झड़ी लगा दी। चूंकि उसके सवालों से प्राण की नई व्याख्याएं निकल रही थीं, तो उसके किसी सवाल को नहीं रोका गया। बड़े राजनीतिक फैसले पर बालक गुरु गोबिंद सिंह के सवाल का आदर उनके पिता तो करते ही हैं, पूरी सभा भी सदका करती है। गुरु गोबिंद के पिता ने कहा कि कौम की रक्षा के लिए तत्काल एक बलिदानी की जरूरत है, बलि कौन देगा। बारह वर्षीय गोविंद सिंह कहते हैं- ‘पिताजी आपसे बड़ा बलिदानी कौन? आप अपना बलिदान देकर दूसरों की प्रेरणा बनें।’
आज स्थित बहुत विचित्र है। किसी के पास इतना धैर्य और समय नहीं है कि वह आत्मचिंतन कर पाए कि क्या मेरा सवाल संगत भी है, जिससे कोई नई समझ बनेगी! क्या मैं निष्पक्ष होकर ये प्रश्न कर पा रहा हूं या नहीं! अपने मन के हर भाव को सवाल समझ कर सोशल मीडिया पर उगलने वालों की भारी तादाद है। उधर कुछ ऐसे हैं, जो अपने अटपटे सवाल को सोशल मीडिया पर या तो डालते नहीं, और डालते हैं तो बहुत घुमा-फिरा कर। वे कोशिश करते हैं कि सामाजिक समूह में ऐसे सवाल उठा कर खीझ उतारो। यहां सोशल मीडिया की तरह विरोध का डर भी नहीं है।
हर कोई खुद मूल्यांकन कर सकता है। जैसे मेरे एक जानकार प्रोफेसर किसी विषय को पूरे भारत के स्कूल पाठ्यक्रम में अनिवार्य करने की बात हर मिलने वाले से करते हैं। कोई उनको फोन मिलाए, तो किसी न किसी बहाने वे उसे यह सुनाने लग जाते हैं। फेसबुक पर भी यही बात लिखते हैं। कइयों ने कहा कि सही मंच पर ही बात रखें, लेकिन टस से मस नहीं। दिक्कत यह है कि आमतौर पर सवाल करने वाला जवाब अपने अनुकूल चाहता है। किसी के भीतर सुनने के सामर्थ्य का अभाव है।
दरअसल, सवाल अगर खीझ का रूप ले ले तो विद्वता को भी ढक देता है। अगर बिल्कुल तटस्थ होकर विचार करें, तो पता चल जाता है कि हमारे सवाल में कितनी लाग-लपेट है, कितनी जिद। हमें ध्यान रखना होगा कि हमारे अच्छे सवाल इस समाज को संवारते हैं, और हमारे निर्थक सवाल इसके स्वरूप को बिगाड़ते हैं। अच्छे प्रश्न खुद को और दूसरों को समाज, देश दुनिया को समझने-समझाने का सही सूत्र है। इसलिए प्रश्न करने के साथ इसकी जिम्मेदारियों का हमें वरण करना होगा।