हरीशचंद्र पांडे
एक विज्ञापन में दिखाया जा रहा था कि स्कूल से बच्चे घर लौट रहे हैं। रास्ते में एक पौधा मिला। बच्चे अपनी बोतल से बचा हुआ पानी डाल कर उस पौधे से बात करने लगे। ऐसे संदेश बहुत कम देखने को मिलते हैं, जब बच्चे प्रकृति से जुड़ाव महसूस करें। अगर रोजाना की दिनचर्या में भी ऐसा किया जाए तो शायद यह धरती हरितिमा से सराबोर हो जाए। किसी फिल्म का एक दृश्य याद आता है, जहां एक व्यक्ति पेड़ काट रहा है और एक मासूम बच्चा पास आकर कहता है कि अंकल यह पेड़ आपका बच्चा भी तो हो सकता था।
दरअसल, आज की तकनीकी दुनिया ऐसी समस्याग्रस्त और तनावपूर्ण हो गई है कि हर चीज का अंधाधुंध उपभोग करते हुए हम गलती से भी एक पल ठहर कर यह सोचना नहीं चाहते कि यह पानी, यह चाय, भोजन की थाली हमको मिली कहां से। धरती पुत्र कैसे अनाज उगाते हैं, सब्जियों को सींच कर रसीला बनाते हैं। और, हम आधा खाकर बाकी फेंक देते हैं। पानी सहेजते नहीं। धरती का जलस्तर हमारी आयु की तरह लगातार कम हो रहा है। हमने अपने स्वाद और विलासिता के चक्कर में ऐसा जंगली वातावरण बना दिया है कि धरती फूल-पत्तों की जगह कचरे का परिधान पहनने को मजबूर हो जाएगी।
प्लास्टिक का कचरा जमीन और समंदर में फेंक कर हम हर तरह से अपने ही दुश्मन बन रहे हैं। आज का बच्चा, किशोर और युवा क्या करे, मजबूर है। मोबाइल फोन और लैपटाप पर ही आंखें गड़ाए रखता है। कभी अगर वह फुर्सत से अपने चारों ओर देखे, तो कुदरत की सुंदरता देख कर उसका मन प्रफुल्लित हुए बिना नहीं रह सकता। पर्यावरण की गोद में सुंदर फूल, लताएं, हरे-भरे वृक्ष, प्यारे-प्यारे चहचहाते पक्षी आकर्षण का केंद्र बिंदु हैं। अगर वह इनको गौर से देखने लगेगा तो इनके विरुद्ध काम नहीं करेगा। मगर ‘डिस्पोसेबल’ चीजों ने मानव को धरती-विरोधी बना दिया है।
एक बार ऐसा हुआ कि कुछ बच्चे किसी कस्बे में झील देखने गए। वे यह देख कर चौंक गए कि रंग-बिरंगी मछलियां नहीं, वहां पानी की बोतलें तैर रही थीं। बच्चों ने स्कूल आकर अपने अनुभव में यही लिखा। खबर अखबार में आई, तब जाकर वह कचरा नगर पालिका ने साफ कराया। कार्बन प्रलय का इंतजार करने की जरूरत नहीं, वह बस आने ही वाला है। एक आयोजन किया गया था, जिसमें दो सौ लोग भोजन करने के लिए आए। मेजबान ने बीस-पच्चीस मटके पानी भर कर रखवा दिया। गिलास रख दिए गए। अगर हर जगह यही प्रचलन हो, तो हर दिन विश्व में दो-तीन लाख करोड़ प्लास्टिक बोतलों का कचरा निकलने से बच जाएगा।
आज मानव ने अपनी जिज्ञासा और नई-नई खोजों की अभिलाषा में पर्यावरण के सहज कार्यों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है, जिसके कारण हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। हम अपने दोस्तों, परिजनों का तो बहुत खयाल रखते हैं, पर पर्यावरण के मामले में गांधी जयंती या स्वच्छ भारत अभियान के समय ही सफाई का खयाल आता है। अगर हम अपने पर्यावरण और पृथ्वी के बारे में सोचेंगे, तो इस प्रदूषण से बच सकते हैं।
एक शोध के अनुसार, अगर एक छोटे शहर में करीब बीस पित्जा डिलीवरी केंद्र हैं, तो वहां इसके डिब्बे सहित अन्य चीजों से लगभग डेढ़ क्विंटल गैरजरूरी सामान कचरे में आ रहा है। ऐसी फालतू चीजों का प्रयोग धरती पर भार बन रहा है। हम सब जैसे यह मान कर प्रकृति का दोहन करने लगे हैं कि यह बस हमारे लिए है, आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा, यह तो हमें सोचना तक नहीं है।
कार्बन का फैलाव ऐसा है कि चिड़ियां और तितली अब नजर नहीं आतीं। हम एक पल भी यह नहीं सोचते कि एक पेड़ के साथ गौरैया, गिलहरी आदि का परिवार भी जुड़ा रहता है। हर जीवन कीमती है। ये फूल-पत्ते, पशु-पक्षी हमारे साथ सहयात्री हैं। किसी घर में अगर सौ खिलौने बैटरी से चल रहे हैं तो यह बहुत घातक है। अगर केवल सौ घर भी ऐसे हैं, तो धरती का दम घुट कर रहेगा। लकड़ी के खिलौने, रीचार्ज होने वाली बैटरी, यह सब भी उपलब्ध हैं, इन पर गौर करना चाहिए। कुछ प्रयास तो हमारे ही हाथ में है। सामान लाने के लिए एक कपड़े का थैला इस्तेमाल हो सकता है, पर लाखों पालीथीन की थैली हर दिन उपयोग में ली जाती है।
एक तीन दिवसीय सेमिनार में हर दिन एक हजार से अधिक नैपकिन हाथ पोंछ कर कचरे में डाल दिए गए। जबकि दो दशक पहले लगभग चार-पांच तौलिए रख दिए जाते और फिर साबुन से हाथ धोकर उनका इस्तेमाल कर लिया जाता था। हालांकि यह सच है कि पर्यावरण एक दिन में कार्बन मुक्त नहीं होगा, पर छोटी-छोटी आदतें प्रकृति को सांस लेने देंगी और सांस लेती, खुश प्रकृति कोई छोटी बात नहीं है।