वर्तमान समाज सदियों में बना है। यह असंख्य रूढ़ियों, रीति-रिवाजों और परंपराओं का समुच्चय है। व्यक्ति और परिवार समाज का ही दर्पण है, जिसमें व्यक्ति समाज और अपने आपको आईने की तरह देख सकता है। व्यक्ति और समाज दोनों मिलकर इसे आकार देते हैं। व्यक्ति समाज में ही रहकर व्यक्तित्व का धनी कहलाता है। महान व्यक्तित्व समाज को दिशा देता हुआ लगता है और समाज उसके पीछे चलता हुआ प्रतीत होता है। असंख्य व्यक्ति समाज का प्रतिरूप होते हैं। व्यक्ति समाज से अलग-अपना अस्तित्व नहीं मानता और समाज भी उसे अपने से अलग नहीं होने देता है। व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं, लेकिन दोनों में गजब का द्वंद्व है। व्यक्ति समाज में रहकर ही व्यक्ति बनता है, पर उससे टकराकर, पंगा लेकर ही।

समाज को समझना टेढ़ी खीर है। इसे जीने और पीने वाले कबीर या बुद्ध जैसे महान लोग अपने आप को सिद्ध करते हैं, जिन्हें आज भी बड़े सम्मान और गरिमा के साथ याद करते हैं तो इसलिए कि वे उसमें रहकर रास्ता दिखाने वाले राही, पथ प्रदर्शक होते हैं। समाज से टकराने से मतलब है जोखिम लेना। वह टकराने वाले की बेरहमी से परीक्षा लेता है। यह रास्ता चुनने वाला कुर्बान हो सकता है। इसीलिए कबीर कहते हैं- ‘जो घर जारे आपनो, चले हमारे साथ।’

किसी के दुनिया से कूच कर जाने पर गांव में बारह दिन तक समाज, परिवार और घर वालों को बेहद नजदीक से देखने पर व्यक्ति और समाज का द्वंद्व समझ आता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों को निभाने वाला हिंदू समाज अपने आपको वक्त के साथ बदलने में दिखावा भरपूर करता है, पर रीतियों, रूढ़ियों और कर्मकांडों को साथ लेकर अन्यथा व्यक्ति को अलग-थलग करने में देर नहीं करता है।

एक शिक्षित व्यक्ति समाज को दिशा दे सकता है। यह सिद्धांत है। इसे व्यवहार में देखने का अवसर किसी भी व्यक्ति को एक खास मौके पर बारह दिन मिल सकता है। हमारे इलाके में दाह-संस्कार से लेकर हरिद्वार तक या नुक्ता की रस्म तक चलने वाली बैठकी जिसमें गांव, रिश्तेदार और मिलने वाले अन्य गांवों से बारह दिन तक लगातार आते हैं। जाने वाले को विदाई देने की यह पारंपरिक रस्म अदायगी है, जिसे समाज, परिवार और व्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। दाह-संस्कार हिंदू समाज सदियों से कर रहा है।

नश्वर शरीर को, मिट्टी से बनी काया को फिर मिट्टी हो जाना है। इस क्रिया को धार्मिक रंगत देने की बारह दिनी रस्म अदायगी परिवार, रिश्तेदार धार्मिक कर्मकांड के साथ करते हैं। शिक्षित होकर कोई व्यक्ति समाज की इस रिवायत के बीच उचित-अनुचित का महज सवाल भर उठा दे तो परंपरा को आखिरी तौर पर अप्रश्नेय मानने वाले आम लोग इस तरह टूट पड़ते हैं, जैसे सवाल उठाने वाले ने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो।
सही है कि बदलते विश्व के बीच हमारे गांव भी बदल रहे हैं, पर सही दिशा में नहीं।

दिखावे में गांव शहर की होड़ कर रहे हैं, पर कर्मकांड को साथ लिए ही। आसपास के लोगों के साथ-साथ भाई-बंधु और रिश्तेदार भी भलीभांति याद दिलाते हैं कि वे अपने समाज में अपनी अहमियत रखते हैं। पंच-पटेल अपने दबदबे को कर्मकांड के माध्यम से कायम रखना चाहते हैं। वे हर रूढ़ि और कर्मकांड को जिंदा रखने के लिए इज्जत, हैसियत और दिखावे से जोड़ लेते हैं। किसी बात पर कोई ठोस तर्क नहीं रख सकते, फिर भी परंपरा का हवाला देकर ‘वीटो’ करने में देर नहीं लगाते।

जहां तक किसी की मृत्यु का सवाल है तो जो चला गया, वह चला ही गया। यह ध्रुव-सत्य है और धीरे-धीरे सभी वक्त के साथ मान लेते हैं। तीन दिन बाद ही इस तरह के सवाल इक्का-दुक्का लोग ही कर पाते हैं कि दुनिया से जाने वाला कैसे गया! सबका मानना यही होता है कि समाज में परंपरा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए। जाने वाले की आत्मा की शांति के लिए उन पर कुछ खर्च होना चाहिए! इस तरह के क्रियाकलाप और कर्मकांड को समाज, परिवार और रिश्तेदार भलीभांति देखता है।

श्राद्ध हो या शादी, इसमें होने वाले खर्च में कमी को वे अपनी तौहीन और बेइज्जती मान कर रूठने का नाटक करते हैं। अधिक दिखावा और अधिक खर्च को एक स्वाभाविक काम मानते हैं। बल्कि इस तरह के आयोजनों में ज्यादा खर्च करने वालों का नाम लेकर अन्य लोगों पर एक तरह का दबाव बनाया जाता है।

समाज अपनी ही धुन और डगर पर क्यों चलता है? सही दिशा की ओर क्यों नहीं बढ़ता? हर दिखावे को तुरंत क्यों अपना लेता है और सदियों से चले आ रहे रीति-रिवाजों, कर्मकांडों और रूढ़ियों को जारी रखने में अपनी इज्जत क्यों समझता है? समाज में अपनी एक खास पहचान और खुद को अलग साबित करने और अन्य से ऊंचा समझने या अपने अहं का मसला मानकर कुछ लोग अजीब व्यवहार करते हैं। ऐसे अवसर को पंच-पटेल, परिवारजन और रिश्तेदार चूकना नहीं चाहते और अपना होने के अलावा कई विचित्र तर्क देकर खर्च करवा लेने में अपनी जीत और इज्जत मान लेते हैं।