रूपा
मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्र है। हर काम वह अपने हिसाब से करना चाहता है। करता ही है। बेशक कुछ बातें वह दूसरों से सीख कर, दूसरों का अनुकरण करके उन्हें अपने जीवन में उतार लेता है, मगर वे सब चीजें भी वह तभी स्वीकार करता है, जब उसका मन मानता है। अपने मन की मिले तो हर चीज सुखदायी होती है। दूसरों का, बेमन का दिया अक्सर तकलीफदेह होता है।
हालांकि यह भी मन के ही झमेले हैं। चूंकि स्वभाव से हर कोई अपने मन की चाहता है, इसलिए दूसरे का दिया उसे प्राय: खटकता ही है, चाहे वह कितना भी अच्छा क्यों न हो। इसीलिए कोई नहीं चाहता की उसके ऊपर कोई हो। इसीलिए मौका पाते ही हर कोई खुद को दूसरों से ऊपर स्थापित कर देता है। जिसकी जितनी क्षमता है, वह उतना भर ही सही, अपने को ऊपर रखता है। पति पत्नी से ऊपर, पत्नी अक्सर पति से ऊपर रहने का प्रयास करते हैं। दोनों मौके तलाशते रहते हैं कि कैसे खुद को दूसरे से ऊपर साबित करें।
इस जगत का सारा खेल इसी तरह खुद को श्रेष्ठ साबित करने के प्रयास में खेला जा रहा है। श्रेष्ठ होना बहुत अच्छी बात है। मगर दुनिया में श्रेष्ठता के सारे खेल छल-छद्म से ही खेले जाते हैं! वहां चालबाजियों, धूर्तताओं, दूसरे को गिराने, अपने को सदा श्रेष्ठ बताते रहने से ही खेल में जीतने की संभावनाएं बनती हैं। इस मामले में जो जितना चतुर है, अपने को श्रेष्ठ साबित करने में निपुण है, वह उतना ही सफल है। इसीलिए तो बाजार ने अब सफलता और श्रेष्ठता के अलग मानक बना रखे हैं। बाजार की विद्या पारंपरिक समाज की विद्या से बिल्कुल अलग है। जिन चीजों को समाज नैतिक मूल्य मानता आया है, बाजार ने उन्हें बदल दिया है। बाजार ने अपनी नई नैतिकताएं गढ़ी है।
स्वाभाविक रूप से बाजार की नैतिकताएं व्यक्ति और फिर समाज में भी घुलमिल गई हैं। व्यक्ति जैसे ही बाजार में घुसता है, बाजार उससे कहता है की खुद को बेचो। जो जीतने अच्छे ढंग से अपनी कीमत लगाता है, वह उतने ही महंगे दाम पर बिकता है। आजकल हर आदमी की कीमत है। कौन कितने अच्छे ढंग से खुद को बेचता है, उसकी कीमत उसी अंदाज से तय होती है। उस कीमत के पीछे आदमी के बहुत सारे झूठ छिपे होते हैं। मगर अपने झूठ को छिपा लेने की कला ही तो वह असल विद्या है, जो मनुष्य के दूसरों से श्रेष्ठ बनने का रास्ता तय करती है। जो अपने झूठ को जितनी सफाई से सच में बदल देता है, बाजार में वह उतना ही कीमती है, उतना ही श्रेष्ठ है, उसी को लोग सबसे अधिक पसंद करते हैं।
यह श्रेष्ठ बनने की होड़, झूठ को छिपाने और झूठ के साथ जीने की कला को परिमार्जित करती चलती है। श्रेष्ठता की होड़ में शामिल व्यक्ति कब झूठे अहंकार से भर उठता है, कब वह भूल जाता है कि उसके अलावा भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपने-अपने ढंग से कुछ न कुछ श्रेष्ठ कर रहे हैं। उसके अलावा भी बहुत सारे लोग हैं, जो उससे श्रेष्ठ सोचते, मूल्यवान विचार रखते हैं।
समाज का छोटा से छोटा माना जाने वाला इंसान भी कुछ न कुछ श्रेष्ठ दे सकने की क्षमता रखता है। इस बात का उसे पता ही नहीं चलता। वह तो अपनी श्रेष्ठता में इस कदर अकड़ जाता है कि दूसरों के हर किए, हर कहे, लिखे, हर विचार, हर फैसले में कमियां ही कमियां नजर आती हैं। उसे हर समय अपने सामने छोटे लोग चाहिए। इसलिए जहां भी उसकी शक्ति काम करती है, सारे फैसले खुद लेता है, दूसरों को फैसला करने ही नहीं देता। वह चाहता है कि दूसरे सिर्फ उसके हर फैसले का पालन करें, अपनी कोई राय न दें। उसके फैसले की न सिर्फ तारीफ करें, बल्कि दूसरों को भी समझाएं कि उसका फैसला कितना महत्त्वपूर्ण है, किस तरह अब तक के सारे फैसलों से अच्छा है, बल्कि इससे पहले किसी ने ऐसा फैसला करने के बारे में न तो सोचा और न साहस दिखाया।
घर के भीतर हो याकि समाज में, जिला प्रशासन के स्तर पर हो याकि केंद्रीय प्रशासन के स्तर पर, हर शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ऐसी प्रवृत्ति का सहज शिकार होता देखा जाता है। इसीलिए तो बाबा तुलसी दास ने कहा कि ‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’। प्रभुता पाकर अहंकार आ ही जाता है। मगर इस तरह झूठ के साथ जीने की आदत कब आत्ममुग्धता में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता। आत्ममुग्धता एक बीमारी है। मनोविज्ञान इसे बहुत खतरनाक बीमारी बताता है। क्योंकि जो आत्ममुग्ध है, उसे तो कतई पता नहीं चलता कि वह दरअसल एक मनोवैज्ञानिक विकार का शिकार हो चुका है। शरीर के सारे रोग कोई न कोई पीड़ा पैदा करते हैं, उससे आदमी को पता चल जाता है कि उसे कोई बीमारी हो गई है।
मगर मन के विकार सुख देते हैं। इसलिए की सुख अपने आप में मन का एक विकार है। मन अपने विकार खुद पैदा करता है, इसलिए वह कभी मानता ही नहीं कि उसने किसी बीमारी को जन्म दिया है, किसी बीमारी को पकड़ कर बैठा है। इसलिए आत्ममुग्धता मनुष्य को सुख देती है। यह एक प्रकार का नशा है। आदमी को उस नशे की आदत हो जाती है। उसके बिना वह रह ही नहीं पाता। उसे बेचैनी होने लगती है।
हर आत्ममुग्ध को दूसरों को पीड़ा पहुंचा कर सुख मिलता है। क्योंकि आत्ममुग्धता आदमी की सहज मानवीय संवेदनाएं सोख लेती है। दूसरों का दर्द वह अनुभव नहीं कर पाता। समानुभूति उसमें रह नहीं जाती। उसे दूसरों को नीचा दिखाने, उनका मान मर्दन करने, उन्हें जलील करने, हिकारत की नजर से देखने में आनंद मिलता है। इसीलिए मनोविज्ञान आत्ममुग्ध व्यक्ति को समाज के लिए घातक मानता है। मगर किसी आत्ममुग्ध को यह समझाना भी तो आसान नहीं कि दरअसल, वह एक खतरनाक बीमारी से ग्रस्त है, उसकी पीड़ा उसे महसूस नहीं हो रही।