मधु अरोड़ा

होली की बातें होली के दिन ही खत्म हो जाएंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। आज बात भांग की हो रही है तो मुझे याद आता है कि मैं उस समय करीब बारह-तेरह साल की रही होऊंगी। होली पर ठंडई बननी थी और एक दुकान से भांग की पत्ती लानी थी। दुकान पास थी, सो लेने चली गई। वापसी में उस पुड़िया को खोला और उत्सुकतावश भांग की कुछ पत्तियां मुंह में डाल कर चबा लीं। घर आकर किसी को बताया नहीं। सोचा कि इतने से क्या असर होगा! पर करीब दस मिनट बाद ही एक रात में दो-दो चांद खिला दिखने जैसी हालत हो गई। मां ने उस दिन तो कुछ नहीं कहा, पर दूसरे दिन पूछा- ‘कल क्या खा लिया था जो आंखें भारी-भारी लग रही थीं?’ तब मैंने उन्हें पूरी बात बताई। इस पर उन्होंने कहा कि भांग के बीज आंखों के लिए अच्छे नहीं होते। इसलिए भांग अच्छी तरह साफ करके बीज निकाल देने चाहिए। इन बीजों से अंधे होने तक की आशंका रहती है और नियमित रूप से खाने वाला ‘कलर ब्लाइंड’ हो जाता है। इसके अलावा, बाल भी कम उम्र में सफेद हो जाते हैं। उनकी बात का ही यह असर है कि मैं आज तक किसी भी प्रकार के नशे से दूर रही हूं। कभी न तो इसकी जरूरत महसूस हुई और न मन ही किया। जबकि शराब का चलन आजकल कुछ ज्य़ादा ही बढ़ गया है। बात-बात में लोग बोतलें खोल लेते हैं।

बहरहाल, यह भी कोई होली है कि चुटकी भर रंग गालों पर टपका कर फोटो डाल दिया। इतना रंग लगाओ कि अपनी ही सूरत न पहचानी जाए। घर से बाहर निकलें सब। अपने इधर तो नीचे माहौल बन रहा है। ढेर सारे रंग ले आई हूं। लाल, हरा, नीला, पीला, जामुनी, गुलाबी। अब कॉलोनी वालों की खैर नहीं। बहुत बुलाते हैं लोग होली खेलने। एक बार मेरी कॉलोनी की एक महिला मेरे साथ थीं। वे बोलीं- ‘इतने रंग खरीदे आपने! आप अकेले इतने रंग खर्च कर लेंगी!’ मैंने कहा- ‘और क्या! आपको भी थोड़ा-सा दे दूंगी।’ खैर, सारी विधियोें से खेलने वाले लोग हैं। अलीगढ़ी शैली यानी दूसरे के रंग की थैली छीन कर भागना। मांगने की जरूरत नहीं। राजस्थानी शैली यानी अपना रंग चुटकी भर और दूसरों की थैली से मुट्ठी भर रंग…! दक्षिण भारतीय तरीका यानी थोड़ा-सा रंग लगाना। दिल्ली का हिसाब यानी आना नहीं चाह रहे थे, पर आ ही गए। रंग खरीदा नहीं, जरा अपने रंग में से देना। इसी तरह, मुंबई यानी पानी जास्ती डालने का, रंग कमती!

एक सज्जन भांग की पिनक में थे। बोले- ‘आपके पति यहां नहीं हैं तो फायदा उठा कर आपको एक भजिया दे दूं!’ मैंने कहा- ‘भजिया देने के लिए पति की अनुपस्थिति की क्या जरूरत है? उन्हें पता है कि मैं आप जैसों से निपटने की क्षमता रखती हूं। वे इन मामलों में निश्ंिचत रहते हैं।’ फिर उनकी पत्नी को बुलाया- ‘सरलाजी, आज आपके ‘ये’ ज्य़ादा पी गए हैं भांग। जरा संभालिए। हर महिला को भजिया खिलाने का मूड है इनका।’ वे बोलीं- ‘सुनते हैं मिनी के पापा! आप ऊपर जाइए। नाश्ता और लंच घर में भिजवा दूंगी।’

अपना दोपहर का भोजन भी हो गया। एक कोने में पुरुष बैठे थे और सामने थीं बोतलें। जो भी उस अड्डे से आ रहा था, मुंह थोड़ा-सा सूजा हुआ। सब कुर्सियों के बीच में से जिग-जैग करता हुआ फिर अपने अड्डे पर। एक आए और अपनी बेटी की आइसक्रीम प्लेट में से आधा स्लाइस उठाया और खाते हुए चले गए। बेटी कहती रह गई- ‘पापा, आइसक्रीम ऐसे ही थोड़े खाते हैं!’ दूसरे को चौकीदार पकड़ कर लाया और कुर्सी पर बिठा दिया और उनकी पत्नी ने उन्हें थाली सजा कर दे दी। नहीं तो पत्नियों को पति सेवा हर जगह और हर समय करने का शौक है।

एक किटी पार्टियन टाइप की महिला बोलीं- ‘क्या आप भी पीती हैं?’ मैंने पूछा- ‘क्या?’ उन्होंने कहा- ‘अरे वही, लेडीज ड्रिंक। ज्यादा नशा नहीं होता। हलकी होती है।’ शायद वे पीने के मूड में थीं। मैंने कहा- ‘मैं नहीं पीती। बिना पिए ही नशे में रहती हूं।’ अलग-अलग उम्र की औरतों की अलग-अलग बातें। उम्रदराजों के अनुसार- ‘अच्छा है कि सब्जियां तेल में डूबी नहीं हैं। आजकल तेल वाली चीजें पचती नहीं हैं।’ प्रौढ़ महिलाओं के मुताबिक- ‘थोड़ा तो तेल होना चाहिए! सूखी सब्जी गले में अटकती है।’ युवा लड़कियां कहती हैं- ‘सब्जी तीखी होनी चाहिए। जब तक सी-सी न करे जीभ, तब तक क्या मजा!’ मजेदार बात कि किसी पति को नहीं देखा कि वह अपनी पत्नी के लिए खाने की थाली लगा कर ला रहा हो!

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