देवेंद्र आर्य

स्तरीयता बनाम लोकप्रियता की गांठ हिंदी साहित्य के लिए ऐसी है, जिसे लगभग सभी बड़े साहित्यकारों ने खोलने की कोशिश की है। पर गांठ है कि खुलती ही नहीं। कभी यह गांठ भोपाल में लगी थी, अब रायपुर में लगी है। पुरस्कार-लिफाफा लेना चाहिए कि नहीं, जाना चाहिए कि नहीं। ले ही लिया तो क्या बुरा किया! कविता तो वही है न, जलसा चाहे जो हो! आगे भी जनता को सावधान करेंगे और वही जनवादी, गैर-सांप्रदायिक कविता लिखते रहेंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जो नहीं पा रहे हैं, उसे हेय घोषित कर दे रहे हैं? पुरस्कार के साथ ईमान के संदर्भ में भी सोचिए। उर्दू के नामचीन शायर एक साथ लोकप्रिय और स्तरीय दोनों रहे हैं। फ़ैज़, फिराक, जोश, जिगर से लेकर निदा, मालिकजादा तक। स्तर का फर्क हो सकता है, लेकिन आमतौर पर उर्दू में लोकप्रियता सड़क छाप स्तरीयता कभी नहीं रही। ये सिर्फ अपनी शायरी के बल पर मकबूल हुए, मंच पर और पुस्तकालय में भी। मगर हिंदी में क्या स्थिति है? रघुवीर सहाय के मुताबिक- ‘मैं मानता हूं कि अब कविता की आवाज जब तक लोगों के कान में नहीं पड़ेगी, तब तक कविता के जो शब्द हैं, उनकी सच्चाई के बारे में कविता पर कोई दबाव नहीं रह जाएगा। कवि सच्चे शब्द कहे, लिखे, इसके लिए जरूरी है कि वे शब्द लोगों को सुनाई पड़ें। क्यों इतना विभेद, इतना अंतराल छपे हुए साहित्य और उसके पाठक के बीच आ गया है? कोई तरीका ऐसा होना चाहिए, जिससे कविता लोगों के कानों तक पहुंचे।’

यानी रघुवीर सहाय सदृश नई कविता (छंदहीन कविता) के बड़े कवि अपनी कविताओं के सिर्फ किताबों तक महदूद रह जाने से चिंतित थे। रघुवीर सहाय ने गीत और गजल के फार्म में भी निर्दोष कविताएं लिखी हैं। तो कविता आंखों तक सीमित न रह जाए, कानों तक जाए इसके लिए ‘कोई तरीका’ क्या हो सकता है? काव्यपाठ के लिए नई कविता, जो छंद-कविता से अपने को स्तरीय समझती है, वह पाठकों को श्रोता बना पाने में, यानी लोगों के कानों तक जा पाने में कितनी सक्षम है, इसे कवि से ज्यादा कौन जानेगा! हकीकत यह है कि कविता के कान तक न जा पाने के दुर्गुण को ही उसका गुण माना जा रहा है।

अब जरा स्तरीयता और लोकप्रियता के मुद्दे पर भी सहायजी की राय जान ली जाए- ‘जैसे राजनीति में, वैसे ही कविता में भी जन के साथ कानूनी रिश्ते तो बने हुए हैं, लेकिन इंसानी रिश्ता रह नहीं गया है। इससे कवि भी राजनीतिक की तरह आत्मरहित बनता जा रहा है।’ रघुवीर सहाय के लिए आत्ममुग्ध होना भी आत्मरहित होना है। अपनी स्तरीयता के प्रति आत्ममुग्ध हिंदी कविता कितनी आत्मरहित होती जा रही है, यह सोचा जाना चाहिए। रघुवीर सहाय आगे कहते हैं- ‘यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि जो सर्वसुगम है, वह सस्ता हो और इसके उलटे जो दुरूह हो, वह गंभीर हो। असल प्रश्न तो यह है कि जो गंभीर है, वह सर्वसुगम है या नहीं!’

सर्व-सुगमता और सर्व-सुलभता हिंदुस्तान के संदर्भ में कविता के मुद्रित रूप को नहीं माना जा सकता। यानी जो कविता सिर्फ आंखों तक सीमित है, वह कानों तक भी जाए। यहीं प्रश्न उठता है कि जो कविता कानों तक पहुंच रही है, वह कितनी कविता बची रह रही है, यह विचारणीय है, मुनव्वर राना के संदर्भ में भी।

जो गंभीरता, विषय-विविधता, विश्लेषणात्मक एकाग्रता और गहनता, छंद-छोड़ कविता में संभव है, छंद-जोड़ कविता में नहीं। उसी तरह जो धार, मार और प्रसार शायरी में संभव है, वह नई कविता के लिए कबिले-रश्क है। प्रसार और विस्तार का अंतर छंद और छंद-हीनता का अंतर है। कानों की कविता का क्षैतिज प्रसार उसके लंबवत विस्तार को प्रभावित करता है। इसीलिए किसी खास काव्य-शिल्प को कविता का आईना नहीं बनाया जा सकता। कृष्न बिहारी ‘नूर’ का एक शेर है- ‘आईना यह तो बताता है मैं क्या हूं लेकिन / आईना इसमें है खामोश कि क्या है मुझमें।’

रघुवीर सहाय ‘कोई रास्ता’ खोजते रहे और हम भी उसी राह पर हैं। क्या स्तरीयता और लोकप्रियता हिंदी-उर्दू नहीं हो सकतीं? मुनव्वर का शेर है- ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कराती है / मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कराती है’। क्या ऐसा संभव नहीं? बेशक स्तरीयता और लोकप्रियता में मां का दर्जा किसे हसिल होगा और मौसी का किसे, यह प्रश्न साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण होगा।

हर भाषा, हर शिल्प की अपनी एक सीमा होती है और वही उसकी विशिष्टता भी। कभी लोकप्रियता स्तरीयता को मात देती है, तो कभी स्तरीयता लोकप्रियता के खतरे उठाती है। शायद ग़ाालिब का ही यह मिसरा है- ‘मेरे तामीर में मुज्मर (निहित) है एक सूरत खराबी की’। कविता की कोई भी तामीर हो, छंद की या नई कविता की, मुकम्मल नहीं होती। कोई शिल्प आखिरी नहीं होता। न लोकप्रियता अंतिम है, न स्तरीयता। संवेदनाओं की गहराई में जाना और उन्हें उकेर कर पाठक-श्रोता को और अधिक संवेदनशील बनाना कि संवेदनाएं बची रहें, यही स्तरीयता है, जिसे कुछ लोकप्रियता-धर्मी, संवेदनाएं बचाने का करोबार करने के बहाने संवेदना को बेच कर सफल और महान बन रहे हैं। मां-फेम मुनव्वर के लिए परवीन शाकिर का एक शेर है- ‘वो लम्हा जब मेरे बच्चे ने मां कहा मुझको / मैं एक शाख से कितना घना दरख्त हुई’।
मुनव्वर का एक शेर है- ‘जबानें भी तिजारत का जरीया बन गर्इं राना / हमारे मुल्क में उर्दू का कारोबार होता है।’ मुनव्वर भाई, कारोबार अगर उर्दू का हो रहा है तो लोकप्रियता का भी, तथाकथित स्तरीयता का और ताल्लुकात का भी। साहित्य अकादेमी की मजबूरी भी समझनी चाहिए।

 

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