कौशल किशोर
आजकल देश-विदेश के अनेक मंचों पर कुछ नेताओं के हिंदी में व्याख्यान देने से भारतीय भाषाओं की पैरवी करने वाले लोग खुश हैं। होना भी चाहिए। हालांकि केंद्रीय सेवाओं में आज भी सभी जगह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उचित स्थान नहीं मिल सका है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस दिशा में कोई पहल नहीं हो रही हो। भारतीय वन सेवा की अगले साल होने वाली परीक्षा में अंग्रेजी के साथ हिंदी का विकल्प भी मौजूद होगा। तमाम शिक्षण संस्थानों में मौजूद अंग्रेजी की प्रयोगशाला आने वाले समय में स्थानीय भाषाओं की सुविधा मुहैया करा सकती है। महाराष्ट्र और कर्नाटक की सरकारें स्थानीय भाषाओं को व्यवहार में लाने की योजना के कारण प्रशंसा बटोर चुकी हैं। अब तो अन्य राज्यों और गैर-सरकारी क्षेत्रों में भी यह प्रवृत्ति फैल रही है। भारतीय भाषाओं पर केंद्रित अभियान खूब मजबूत होने लगा है। निश्चय ही इससे स्थानीय भाषा में पढ़े-लिखे लोगों को सुविधा आसानी होगी। पर भाषाओं के नाम पर होने वाली ये कोशिशें एक दिन देश की नैसर्गिक विविधता को नष्ट कर दे सकती हैं और गैर-बराबरी को बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध हो सकती हैं।
आजादी के आंदोलन के मध्य काल में सक्रिय रहे अमूमन सभी नेताओं ने हिंदी को लोकभाषा के तौर पर स्वीकार किया। इसे देश की विविधता में एकता का माध्यम बनाना चाहा। आजादी के सात दशक बाद भी इसमें वांछित सफलता नहीं मिल सकी। सरकारी सेवाओं में हिंदी और दूसरी भाषाओं को उचित स्थान मिलने से अंग्रेजी की हैसियत पर व्यापक असर तो होगा ही। इसके लिए पिछले तीन दशक से आंदोलन जारी है। लेकिन रोजगार उपलब्ध कराने में फिलहाल पर्याप्त सक्षम नहीं होने की वजह से हिंदी अपने प्रति आकर्षित नहीं कर पा रही है। हालांकि कई समूह इस कमी को दूर करने के लिए प्रयासरत हैं। पर जिस कमी को दूर करने के लिए आज कोई समूह सक्रिय नहीं है, वह है नष्ट होती बोलियां। आज देश के विभिन्न हिस्सों में प्राचीन काल से जीवित रही वाचिक परंपरा दम तोड़ रही है। कभी ऐसा भी दौर था, जब सही मायनों में विद्वान माने जाने वाले भारतीय लोग इस परंपरा के वाहक होते थे।
भाषाएं बोलियों से बनीं हैं। इसलिए भाषा और बोली के बीच गहरा संबंध है। इसके बावजूद दोनों अलग-अलग चीजें हैं। ध्वनि प्रकृति में उपलब्ध होने वाली आवाजें हैं। यही ध्वनियां परिष्कृत होकर जब अर्थपूर्ण होती हैं तो बोलियों के रूप में प्रस्फुटित होती हैं। यह कुदरत को पूरक के नजरिए से देखने और समझने की परिणति है। यूरोपीय विद्वान इवान इलीच ने ‘अल्फाबेटाइजेशन आॅफ पॉपुलर माइंड’ में कुछ जरूरी बातों पर प्रकाश डाला था। लिखने की व्यवस्था में दोहराव की एकरूपता संभव है। जबकि वाचिक परंपरा में ऐसा होना संभव नहीं है। इसमें काल और कुदरत के साथ एक रिश्ता कायम होता है। अभिलेखन की प्रक्रिया इस रिश्ते को खत्म करने में सक्षम है। लिपि और व्याकरण के संयोग से बोलियां भाषाओं में तब्दील होती हैं।
दरअसल, यह एक राजनीतिक तब्दीली है। इसके अभाव में वाचिक परंपरा के लोगों को साधना मुमकिन नहीं है। बोली और भाषा की अभिव्यक्ति में भी भेद है। बोली स्वभाव से ही आजाद परिंदा है। इसके विपरीत भाषा व्याकरण के नियम-कानून में बंध कर कैद हो जाती है। महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ का एक गांव अगर कल्पना में भी कहीं खड़ा होता है तो बोलियों के आधार पर ही, भाषाओं के बूते नहीं। कई सदियों से बोलियां क्षेत्रीय पहचान और विविधता को सहेज कर रखती आ रही हैं। भविष्य में यह क्रम जारी रहेगा, इक्कीसवीं सदी में ऐसा कह पाना संभव नहीं है।
सभ्यता और संस्कृति की तरह ही भाषा और बोली भी भिन्न अवधारणाएं हैं। इनका राजनीतिक अर्थशास्त्र नागरिक समाज और कबीलाई या ग्रामीण समुदाय के बीच के समीकरण को ठीक-ठीक बयान करता है। सभाओं में बैठने वाले सभ्य समाज के लिए विकसित हुई व्यवस्थाओं को ही सभ्यता माना जाता है और स्थानीय समुदाय के बीच नैसर्गिक रूप से पनपने वाली परंपराओं को संस्कृति का नाम दिया गया है। हालांकि सभ्यता पर आधारित क्रियाकलापों को आज धड़ल्ले से सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाने लगा है। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों द्वारा ऐसा करने से उसी राजनीति का खुलासा होता है, जो लंबे समय से दुनिया भर के लोगों को एक ही लाठी से हांकने की होड़ में लगी है। सही मायनों में तो इसी राजनीति ने विद्वता को साक्षरता की कसौटी पर कसने का अभ्यास सिखाया। एक अरसे से दुनिया भर में लगातार बढ़ रही गैर-बराबरी को गति देने में इसकी महती भूमिका है। भाषा और बोली की बात पर मैं अपने ही गांव-मोहल्ले के लोगों के सामने चुप हो गया था। यह आंकना मुश्किल है कि आज किस हद तक हम अपने गांव की बोली भूल चुके हैं!