दुख की धूप से बचने के लिए काम एक छायादार वृक्ष बन जाता है। लंबे समय तक व्यस्त रहते हुए काम कब लत में बदल जाता है, पता ही नहीं चल पाता। व्यस्तता का महिमामंडन और ‘कुछ न करने’ वालों का मखौल उड़ाना हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक आदतों में शामिल है। पूरे हफ्ते शारीरिक और मानसिक पसीना बहाने के बाद लोग किस बेसब्री से सप्ताहांत की प्रतीक्षा करते हैं, इसे देखें तो लगेगा कि शायद हम अपने काम से प्रेम नहीं कर पाते। बस आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत कारणों से काम में लग जाते हैं, उसकी ऊब और परेशानी को बर्दाश्त करते रहते हैं, क्योंकि एक लंबी प्रतीक्षा के बाद अवकाश नाम की एक उम्मीद की किरण दिखती है। अवकाश के दिन भी हम व्यस्त रहते हैं, पर वह करने में जो हमें पसंद है, जिसमें हमें सुख मिलता है। हम जी रहे हैं कैमू के ‘मिथ आॅफ सिसिफस’ के पात्र की तरह, जो कई बरस रोज एक ही चट्टान सिर पर उठा कर उसे पहाड़ी के शिखर तक पहुंचाता है और शाम को फिर वह चट्टान खिसक कर नीचे आ जाती है। एक असंगत, अबूझ जीवन, जिसमें रोज हमें एक सूरज दिया जाता है, पर हर शाम हमसे वह छीन लिया जाता है। हर सुबह हमें खुद से बाहर निकलने पर मजबूर करती है और हर शाम हमें वापस निर्मम अकेलेपन की तरफ धकेल देती है।

लोग अक्सर काम के लिए ‘पापी पेट’ को दोष देते हैं। चिकित्सकीय दृष्टि से हमारे पेट का आकार एक बंद मुट्ठी के बराबर होता है। उसके लिए काम करना जरूरी है। पर एक मनोवैज्ञानिक ‘पेट’ भी होता है, जो कहता है कि हमारे पास दो फ्लैट या दो कारें काफी नहीं हैं, दो और होने चाहिए। यह पेट हमें ऐसी अंतहीन यात्रा पर ले जाता है जो लगातार यह मांग करता है कि हमें ‘और अधिक’ की जरूरत है। इस यात्रा का यह अंजाम है कि सभी भाग रहे हैं। पहुंच नहीं रहा कहीं कोई। पहुंचते तो फिर भागते क्यों? रुक न जाते!

विश्व विजय पर निकले सिकंदर ने जब अपने गुरु डायोजिनीस से बताया कि वह कई देशों को जीतने के लिए निकल रहा है तो छिद्रान्वेषी दार्शनिक ने पूछा कि इस आयोजन, जीत के बाद आखिर क्या करोगे! सिकंदर ने जवाब दिया कि वह वापस आकर चैन से जिएगा। दुनिया का मखौल उड़ाने वाले महान ग्रीक दार्शनिक ने कहा- ‘क्या अभी, यह सब किए बगैर तुम्हें कोई चैन से जीने से रोक रहा है? जो काम तुम इस भयंकर जद्दोजहद के बाद करोगे, वही अभी क्यों नहीं कर पा रहे?’ सिकंदर के पास इसका कोई जवाब नहीं था।

कई देशों में हुए शोध बताते हैं कि सेवानिवृत्त होने के कुछ वर्षों के भीतर किसी की मृत्यु एक सामान्य घटना है। इसके मनोदैहिक कारण हैं। पहला यह कि चलते-फिरते हुए शरीर ज्यादा स्वस्थ रहता है और ऐसे किसी इंसान को कई दशकों के बाद घर बैठना पड़े, तब उसकी सेहत और मन पर इसका गहरा असर पड़ेगा। अचानक एक सुबह यह अहसास होता है कि समूची जीवनशैली बदल चुकी है, सोने-उठने का वक्त, खाने का समय, साथ रहने, बतियाने वाले साथी-संगी, सब कुछ बदल गए हैं, तो जीवन में एक विराट शून्य और गहरे अवसाद का आगमन हो जाता है। इस शून्य को स्वीकार करना, उसके साथ लय-ताल बैठा पाना और बड़ी उम्र में समूचे जीवन को नए सिरे से गढ़ना सबके वश की बात नहीं होती। इसके साथ तनाव बढ़ता है और चली आती हैं कई व्याधियां। अक्सर ये व्याधियां ही जीवन के अंत का कारण बन जाती हैं।

अपनी महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागते मन में इतना ठहराव, इतनी स्थिरता नहीं होती कि वह इस तरह के प्रश्नों को सुन सके, उनके साथ थोड़ा समय बिता कर उन पर गौर कर सके। पास्कल के मुताबिक, ‘हमारी समस्याएं हैं ही इसलिए कि हम अकेले कभी किसी कमरे में शांत होकर नहीं बैठ पाते।’ सफलता की उपासना पूरी दुनिया कर रही है। समृद्धि की आस सबको लगी है, पर इनकी खोज में पूरा जीवन बिताने के बाद जब अचानक अकेलेपन, व्याधियों और मृत्यु का सच सामने आता है, तो हम असहाय हो उठते हैं। ऐसा लगता है कि जीवन के कुछ बड़े सवालों पर हमने कोई ऊर्जा खर्च नहीं की। बस दूसरों के बनाए हुए रास्ते पर, उनके दबाव में रह कर काम करते रहे। बिस्तर पर पड़ी चादर की सलवटें दूर करने में ही रात बीत गई और सोने का समय ही नहीं मिल पाया।

यह दौड़-भाग सिर्फ समझ और गहरी अंतर्दृष्टि के साथ समाप्त हो सकती है, पर यह विरलों के पास होती है। उनके पास भी, जो बहुत सृजनशील होते हैं। उन्हें भौतिक चीजों से एक विरक्ति होती है। आइंस्टीन कहते थे कि फलों का एक कटोरा, एक वायलिन और काम करने के लिए एक मेज ही जीने के लिए काफी है। यह मनोवैज्ञानिक भूख की यात्रा हमें आखिरकार कहीं का नहीं छोड़ती। हर पूरी होने वाली कामना, अगली कामना के लिए आग में घी का काम करती है। अक्सर इसका अहसास जीवन के अंतिम पल तक भी नहीं हो पाता।

हो सके तो काम करते हुए भी हर रोज थोड़ी देर के लिए सही, कुछ किए बगैर रहना चाहिए। खालीपन की मासूमियत के साथ नाता तोड़ना नहीं चाहिए। यह हमें फिर से तरोताजा बनाती है और खुद को नए सिरे से देखने का अवसर देती है। खाली दिमाग शैतान का घर नहीं होता। ‘शैतान’ तो भरे दिमाग में भी रहता है। हम बस उस पर व्यस्तता, काम-काज का एक ढक्कन लगा देते हैं।