संतोष उत्सुक

मेरी एक परिचित महिला को जोर से खिलखिलाकर, बिना बनावट के हंसने की आदत है। अगर मैं कभी कहता हूं कि इतनी जोर से मत हंसा करें तो वे कहती हैं कि हंसना सेहत के लिए अच्छा होता है। बल्कि उल्टा मुझे ही कुछ बातें सुना देती हैं कि आप भी खुल कर हंस लिया करें। किसी बात पर मैं खुल कर हंस दूं तो कहती हैं कि अपनी यह व्यंग्यात्मक हंसी अपने पास रखा करो। यही बात मजाक के मामले में है। कोई बात उन्हें बुरी लग जाए और कहूं कि मैं तो मजाक कर रहा था या यह तो मजाक था, तो वे कतई पसंद नहीं करतीं। वे समझती हैं कि मजाक ऐसा नहीं होता। खासकर महिलाओं को यह तुरंत समझ में आ जाता है कि किसी पुरुष ने उन्हें कुछ कहा है तो उसमें कितना और कौन-सा भाव मौजूद है।
हंसना सचमुच सेहत के लिए अच्छा है और पिछले काफी सालों से ‘लाफ्टर थेरेपी’ यानी हंसी के जरिए इलाज भी किया जा रहा है। लाफ्टर क्लब से प्रेरित होकर कितने ही शहरों में समूह में हंसने वाले लोग एक जगह जमा होने लगे। सुबह पार्क में दो व्यक्ति मिल कर और यहां तक कि अकेले भी हंसते पाए जाते हैं। मुंबई के एक चिकित्सक ने तो हमारे देश में सौ से भी ज्यादा लाफ्टर क्लब बनवा दिए। मई के पहले रविवार को ‘वर्ल्ड लाफ्टर डे’ मनाया जाता है।

दरअसल, हमने अब खुद से किसी बात पर कम और दूसरों पर हंसना ज्यादा शुरू कर दिया है। पहले कहा जाता था कि आदमी वह है जो अपने ऊपर भी हंस ले, दूसरों का मजाक उड़ाए तो अपने को भी न बख्शे। हंसने की स्वाभाविक क्रिया तब तक रहती है, जब तक बच्चे ने स्कूल जाना शुरू नहीं किया। जिस दिन से उसके जीवन में स्कूल आ जाता है, प्रतिस्पर्धा उसके दिमाग से लिपट जाती है। इसमें मददगार उसके अभिभावक होते हैं जो चाहते हैं कि हमारा बच्चा अद्वितीय हो। धीरे-धीरे नहीं, तेजी से वह हंसना भूल जाता है। उसे अपने आप एहसास होता जाता है कि स्कूल, दुनिया और घर में कितनी हंसी स्वाभाविक है और कितनी नकली।

अब हम जरूरत के हिसाब से हंसते हैं। व्यावसायिक दुनिया ने हमें ध्यान रखना सिखा दिया है कि किस बात पर, किस अवसर पर, किसके साथ, किस शैली में कितना हंसना है। हंसना अब वह पुराने जमाने का हंसना नहीं, बल्कि पूरी तकनीक में बंधी एक मानवीय प्रक्रिया है। इसमें अभिनय भी शामिल होने लगा है। कभी लोक कलाकार सामाजिक कुरीतियों पर आधारित लोक-नाट्यों के माध्यम से हास्य-व्यंग्य रचते थे तो दर्शकों का मनोरंजन भी हो जाता था। अब जब से हंसाना व्यवसाय हो गया है, कलाकार हंसाने के लिए सौम्यता, सरलता, सहजता और प्रकृति से दूर होते गए हैं। उन पर फूहड़ता पूरी तरह से हावी है।

आम लोग हंसते जा रहे हैं, लेकिन इस बीच यह भुला दिया गया है कि इस हंसने-हंसाने में मजाक निम्नस्तर पर पहुंच गया है। फेसबुक, यूट्यूब ने मजाक करने वालों की सोच में गंदगी भर दी है, जिसे वे जी भर कर फैला रहे हैं। लोग सहते जा रहे हैं मजाक के नाम पर। मजाक में कही गई बातों का स्तर हम काफी नीचे ले आए हैं। यह कहा जा सकता है कि इस संदर्भ में शालीनता नहीं, बल्कि अशालीनता, फूहड़ता की सीमाएं लांघ रहे हैं। मोटापा, रंग, कद, जाति, धर्म, प्रदेश, देश, मर्द, औरत, घटना यानी कुछ भी हो, लतीफे उगते देर नहीं लगती।
हमने ऐसा वातावरण रच दिया है कि अब मजाक हल्की-फुल्की छेड़छाड़, नोक-झोंक नहीं रह गया। अनेक मामलों में हमारी अवधारणा ने इससे शत्रुता और भेदभाव बढ़ाने का काम किया है। चैनलों पर कई कार्यक्रम ऐसे पेश किए जा रहे हैं, जिनमें मजाक के नाम पर खुलेआम एक-दूसरे की खिल्ली उड़ाई जाती है और सब खिलखिला कर आनंदित होते हैं। मजाक में हर सीमा पार करना ही आज का चलन है। मजाक या गैरजरूरी हंसने को अवांछित समझना विचारों की संकीर्णता माना जाने लगा है। जब व्यावहारिक अनुशासन की अनदेखी होने लगे तो ऐसा होता ही है। कभी हंसी-मजाक ऊपर से नीचे की ओर आता था, अब उम्र का यह अनुशासन लुप्त हो चला है।

हर मजाक, मजाक नहीं हो सकता। यहां फिर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के नायकों विशेषकर कलाकारों की बात करनी पड़ेगी। यह उनका ही उत्तरदायित्व है कि वे देखें कि कहीं हमारे समाज में संस्कृति के व्यावहारिक स्तर पर गलत बदलाव तो नहीं आ रहे! कहीं हमारे सांस्कृतिक मूल्य खंडित तो नहीं हो रहे! क्या हमारे कलाकारों द्वारा कला को पूर्णतया धन अर्जन करने की मशीन बना देने के कारण ऐसा नहीं हुआ? मनोरंजन की दुनिया में भी अनुशासन की सीमा तो होती है! ठीक वैसे, जैसे विदेशों में भी हर व्यवहार की सीमा है। वहां इतना खुलापन होने के बावजूद अश्लीलता की भी सीमा है। क्या कभी हम उनके नक्शे-कदम पर ही सही, चलेंगे और अपनी संस्कृति को हंसी-मजाक में नहीं लेंगे?