रिम्मी
संसद के भीतर प्रवेश करने से पहले कुछ नेताओं को नतमस्तक होते या मत्था टेकते देखती थी तो सोचती थी कि लोग ऐसा क्यों करते हैं! लेकिन कुछ समय पहले अपनी एक दोस्त आकांक्षा के साथ संसद भवन में जाने का मौका मिला तब इसका अहसास हुआ। उस दिन हमें लग रहा था जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हैं। वे हमारे लिए गर्व के पल थे।
हम अचानक ऐसा महसूस करने लगे जैसे कि आम से कुछ खास हो गए हैं। वहां की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के अलावा संसद की भव्यता ने हमें मोह लिया था। यह हालत या मनोस्थिति शायद केवल हमारी नहीं, बल्कि हमारी तरह वहां संसद को देखने आए सैकड़ों लोगों की भी थी। बच्चों, बुजुर्गों और युवा- सबके चेहरे पर उत्साह साफ झलक रहा था। सबमें एक अलग तरह की ऊर्जा थी। यह संसद थी, जिसके बारे में हमने किताबों या अखबारों में पढ़ा था, तस्वीरों में या टीवी पर देखा था। वहां हमारे देश की सवा अरब आबादी की नुमाइंदगी करने वाले नेता हमारी रोजमर्रा की ‘तकदीर’ तय करते हैं!
अपने आसपास जहां खुद पर शक का एक सवाल उठाए जाने पर हम आहत हो जाते हैं, वहीं वहां हर जगह मौजूद सुरक्षाकर्मियों और उनके घेरों की जांच से गुजरते-पार करते हमें जरा भी बुरा नहीं लगा। उनमें से कई सुरक्षाकर्मी हमारे उत्साह को देख कर ऐसे मुस्करा रहे थे, मानो वे अपने बच्चों को खेलते हुए देख रहे हों। वे हमारे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं थे। सभी तरह की सुरक्षा जांच से गुजरने के बाद जब हम लोकसभा में गए तो वहां कई अधिकारियों ने हमें मुंह पर अंगुली रख शांत रह कर सब कुछ देखने का इशारा किया।
मैंने सोचा कि संसद या विधानसभाओं में हमारे नुमाइंदे भले ही आपस में हर तरह से झगड़ने में यकीन करते हैं, लेकिन जनता को अपनी जुबान पर ताला लगा कर ही वहां होना चाहिए! खैर, भीतर जब टीवी या अखबार की खबरों में दिखने वाले अपने नेताओं के चेहरे देखे तो खुशी हुई। मगर पता नहीं क्यों, वे हमें अनजाने लगे। हालांकि हम उनमें से कइयों को नहीं पहचानते थे। वे सभी उन सवालों से जूझ रहे थे जो हमारी रोजाना की जिंदगी को प्रभावित करते हैं, हमारे देश के चलते रहने की वजह हैं। लेकिन अचानक मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। हम अभी ठीक से यह सब कुछ देख-समझ भी नहीं पाए थे कि सभी सांसद उठ कर बाहर जाने लगे। कुछ सांसद इधर-उधर बिखर कर उसी तरह बातें कर रहे थे, जैसे किसी सेमिनार या गोष्ठी से बाहर निकल कर हम कुछ मित्रों या वरिष्ठों से उनकी बातें सुनने और सीखने लगते हैं।
वहां मैंने यह भी सोचा कि क्या हमारे देश में इतनी कम महत्त्वपूर्ण समस्याएं हैं कि इन प्रतिनिधियों को संसद में बैठ कर उन पर चर्चा करने के बजाय बाहर आपस में अनौपचारिक बातें करने में कोई उज्र नहीं! भीतर जाने के क्रम में हमारा उत्साह अब जिज्ञासा और सवालों में तब्दील हो चुका था। हमें संसद के हंगामे याद आ रहे थे और बाहर छोटे-छोटे घेरे बना कर सामान्य बातचीत करते सांसद दिख रहे थे! हमें ध्यान आ रहा था कि कैसे बिना बहस के कोई विधेयक पारित हो जाता है और उसके इंतजाम समूची जनता की जिंदगी पर असर डालते हैं- अच्छा या बुरा! हम देख रहे थे कि भीतर चमकते सफेद और सादे कपड़ों में अपनी हाजिरी दर्ज करने वाले हमारे नुमाइंदे बाहर निकलते ही बड़ी-बड़ी और लंबी चमचमाती कारों में बैठ कर जा रहे हैं। कोई नेता मर्सिडीज में सवार समाजवाद बचा रहे थे, तो कोई इसी तरह की किसी गाड़ी में हिंदुत्व या धर्म की सियासत बचा रहे थे। कोई ऑडी कार के भीतर से हमें हाथ हिला कर विदा करते हुए निकल गए तो कोई अपने ऐसे ही वाहन के इंतजार में थे।
पहली बार लगा की राजनीति नाम के इस व्यापार का मतलब क्या है! गरीबों के विकास और देश की प्रगति के नाम पर हमारे नुमाइंदे किसका घर भरने में लगे रहते हैं? हम अक्सर संसद की गरिमा पर बात करते हुए अपनी देशभक्ति को ताकत देते रहते हैं। इस गरिमा को बचाए रखना और इसे जनता के हक और उम्मीद की जगह बनाए रखना किसकी जिम्मेदारी है? आज भी अगर लाखों-करोड़ों लोग विकास से महरूम हैं और भूखे-नंगे जीने को मजबूर हैं तो उसकी जवाबदेही किस पर आती है? वे कौन हैं जो देश की जनता को खुशहाली के सब्जबाग दिखा कर खुद ‘राजशाही’ के ठाठ को जी रहे हैं। मैं याद कर रही थी कि संसद भवन के भीतर जाते हुए मुझे क्या महसूस हो रहा था…!
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