आलोक कुमार मिश्रा

सामाजिक विज्ञान की कार्यशाला में शिक्षिकाओं द्वारा कही गई बातें देर तक दिलोदिमाग में गूंजती रहीं। दरअसल, हम सभी आपस में इस विषय के अंतर्गत बार-बार प्रयोग की जाने वाली संकल्पनाओं और शब्दावली पर चर्चा कर रहे थे। उद्देश्य यह था कि कैसे इन भारी-भरकम मानी जाने वाली संकल्पनाओं को जीवन संदर्भों या आसपास के उदाहरणों से जोड़ कर समझा जाए और कक्षा में बच्चों को इन्हें आसानी से समझने और इनसे वांछित व्यवहार परिवर्तन के रूप में सीखने की ओर प्रेरित किया जाए। बहुत सारी राजनीतिक-सामाजिक बातों के अलावा पितृसत्ता और लिंगभेद पर हुई बात अहम रही। यों वहां मौजूद सभी इस बात पर सहमत थे कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है और इसमें महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानने का भाव और प्रवृत्ति है। लेकिन इसके कारणों, प्रक्रियाओं और वास्तविक स्थिति को लेकर आपसी मतभेद साफ दिख रहा था। जेंडर आधारित दिखने वाले व्यवहार में अंतर को कुछ शिक्षक काफी जोर देकर न केवल अपनी बातों में उभार रहे थे, बल्कि इसे स्वाभाविक या प्राकृतिक सिद्ध करने के लिए कई उदाहरण भी दे रहे थे।

जैसे एक शिक्षक ने कहा कि यों मैं स्त्री-पुरुष समानता का समर्थक हूं, मगर मैंने महसूस किया है कि पढ़ी-लिखी और नौकरी वाली महिलाएं भी सिर्फ अपने परिवार और घरेलू जीवन से जुड़ी रहती हैं। अपवादों को छोड़ कर महिलाएं सामाजिक मामलों, राजनीति, जनहित से जुड़े मुद्दों पर खुद आगे बढ़ कर जिम्मेदारी नहीं उठातीं। सभी क्षेत्रों में समान अवसर का महिलाएं फायदा तो उठा रही हैं, पर अपने स्वभाव की वजह से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय नहीं होतीं।

एक दूसरे शिक्षक ने कटाक्ष किया कि प्राकृतिक रूप से ही महिलाएं कमजोर हैं। यह इस बात से भी साबित होता है कि एक तरफ समान होने का दावा और बराबरी की मांग है तो दूसरी ओर महिलाओं को विशेष छूट या सुविधा भी दी जाती है। आखिर बसों या मेट्रो में महिलाओं के लिए सीट रिजर्व करने का क्या तुक है, जब वे पुरुषों के बराबर हैं? उस शिक्षक की बात पर बहुत से लोग हंस कर या सिर हिला कर सहमति प्रदान कर रहे थे। लेकिन एक शिक्षिका ने इसका पुरजोर और तार्किक खंडन किया। उन्होंने कहा- ‘ऐसा नहीं है कि हम महिलाओं और खासकर पढ़ी-लिखी महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में रुचि नहीं है और हम लोग समाज सेवा नहीं करते या इसमें रुचि नहीं रखते। पर हमें बचपन से ही घर-परिवार के लिए जीना सिखाया जाता है। वही हमारी दुनिया है, ऐसा बताया जाता है। उनकी कही इस अंतिम पंक्ति ने न केवल मेरे दिमाग में हलचल पैदा की, बल्कि वहां उपस्थित सभी लोगों को सोचने पर विवश कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारी सारी जिंदगी इन दो बातों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। पहली- सुनै है के? (सुन रही हो क्या?) और दूसरी मां।’

कई शिक्षिकाओं ने बताया कि कैसे पढ़ी-लिखी सक्षम महिला होने के बावजूद उनसे नौकरी और घर की जिम्मेदारी, दोनों भूमिकाएं निभाने की उम्मीद की जाती है। पुरुष प्रतिभागियों ने स्वीकार किया कि स्कूल टाइम के बाद उन्हें आराम करने, कहीं आने-जाने, दोस्तों के साथ मिलने-जुलने जैसे कई अवसर मिलते हैं। पर महिलाओं के मामले में ऐसा नहीं है। एक शिक्षिका ने उदास होकर कहा कि शादी के बाद तो हमारी दोस्ती का दायरा लगभग खत्म हो जाता है। पति तो रोज अपने दोस्तों से मिलते और पार्टी करते हैं, पर हम बच्चे पालने, उन्हें पढ़ाने, खाना बनाने, खिलाने-पिलाने में ही व्यस्त रहते हैं। कुल मिला कर हमारी अपनी जिंदगी होती ही कहां है! एक प्रतिभागी ने अपनी बात रखते हुए और बिल्कुल नया आयाम उकेरते हुए कहा कि काम से घर लौटने पर घरेलू काम करने, महीने में कुछ दिन विशेष शारीरिक स्थिति से जूझने, बच्चों को दूध पिलाने या गर्भवती होने की ऐसी अनेक स्थितियां या संभावनाएं हैं जो पुरुषों से अलग होती हैं। इसीलिए बस, मेट्रो आदि में महिला रिजर्व सीट होनी ही चाहिए।

इसके बाद अनौपचारिक बातचीत में कुछ शिक्षिकाओं ने बताया कि बच्चों के लालन-पालन में सिर्फ हमें जुटना पड़ता है। मां होने की भावनात्मक स्थिति उनके जीवन और कैरियर की संभावनाओं को बांध देती है। पति और घर के अन्य सदस्यों के हर इशारे पर हाजिर रहने और खुश रखने की अपेक्षा और जिम्मेदारी अपनी इच्छा से कुछ कर पाने या दायरा बढ़ा पाने के अवसर छीन लेती है। जबकि ऐसी ही किसी अपेक्षा, जिम्मेदारी या बंधन से पुरुषों को नहीं जूझना पड़ता। इसलिए दिखाई देने वाली सामाजिक स्थितियां किसी प्राकृतिक या स्वभाव आधारित भिन्नता के कारण न होकर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप चलने वाले समाजीकरण का परिणाम हैं।

दरअसल, शिक्षित और नौकरीपेशा महिलाओं से अभी भी परंपरागत भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है। यह काम के दोहरे बोझ की स्थिति कई बार परंपरागत घरेलू स्थिति से भी ज्यादा भयावह हो सकती है। शिक्षा के प्रसार से भी महिलाओं की स्थिति में बहुत अंतर नहीं आया है। बहुत कम पढ़े-लिखे पुरुष पितृसत्तात्मक समाज से मिले लाभों को छोड़ पाए हैं। इसके लिए शिक्षा में उचित बदलाव के साथ-साथ कई अन्य स्तरों पर सुधार की जरूरत है। जैसे मीडिया में लिंग निरूपण की स्थिति में बदलाव, जागरूकता कार्यक्रम, कानून की सापेक्षता और सार्वजनिक जीवन में लैंगिक संवेदनशीलता के माहौल का निर्माण किया जाना चाहिए। बहुआयामी और बहुस्तरीय प्रयास से ही बदलाव लाया जा सकता है।