पूनम पांडे

समाज, राष्ट्र और धर्म- सभी की अपनी एक नीति होती है, उसी प्रकार शक्ति का भी अपना एक नियम होता है। सागर में डूबने के बाद भी कोई चीज एक निश्चित गहराई से नीचे नहीं जा सकती। लेकिन मानव स्वभाव एकदम अलग है। यहां अगर नीचे गिरने की हद अगर पार की गई तो डूबना तय समझिए। यों आकांक्षा और स्वार्थपूर्ति पर ही यह सारा संसार टिका हुआ है, लेकिन एक नदी और भी है, जिसका नाम है त्याग और सादगी। इसके जल में मृगतृष्णा की काई कम ही जमती है। सुबह की रोशनी हो या फिर दोपहर की चमक या फिर सांझ की गोधूलि बेला, इस नदी में कभी भी मटमैलापन और धुंध की परत नहीं चढ़ती है। महात्मा बुद्ध हमेशा कहा करते थे कि जीवन कभी भी एकरस और एकांगी नहीं होता। यह जीवन सांसों पर टिका है और सांसों का आना-जाना तब सार्थक माना जा सकता है, जब वे एक खुश और संतुष्ट मन के मालिक की दिनचर्या निर्धारित कर रही हों। समुचित दिवस का सुव्यवस्थित होना अच्छे मार्गदर्शन पर निर्भर करता है। जीवन की हर लहर पर किसी अच्छी संगति के हस्ताक्षर अवश्य परिलक्षित होते हैं। हमारी खुशी, उल्लास, तत्परता- सब उसी का प्रतिबिंब हैं।

निरंतर साधना और अपने अनुभव के खजाने को शिष्यों के लिए समर्पित सुकरात हर पल मननशील रहते थे कि जीवन क्या है और किसलिए है। कहते हैं कि सुकरात कृषकों से बहुत प्रभावित थे। कर्म को अपने जीवन का पर्याय मान चुके अनुशासन के साथ निरंतर गतिशील और सक्रिय किसानों को वे मन ही मन नमन करते थे। यों भी प्रतिदिन मेहनत करके रोटी पाने वाले में व्यावहारिक ज्ञान आदि बखूबी दिखाई देते हैं। एक और मजेदार बात सुकरात के बारे में अनगिनत जगह पर संदर्भ सहित कही जाती है कि वे हमेशा एक दर्पण साथ में रखते थे। बार-बार उसमें अपनी शक्ल देख कर संकल्प लेते रहते थे कि कहीं कुरूप चेहरे की तरह गुण भी रूप न खो बैठें। सुकरात हर क्षण उत्साहित और जाग्रत रहते थे।

शांति निकेतन के संस्थापक गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर अपने वैभव संपदा से अछूते रहे। वे साधारण रहना पसंद करते थे और इस कहावत का अनुसरण करते थे कि ज्यादा के बगैर काम चल सकता है, मगर थोड़े के बगैर नहीं। कवि वर्ड्सवर्थ का भी यही मत है कि अपने आप को एक सामान्य नागरिक की तरह महसूस करने से क्रियाशीलता में कभी कमी नहीं आती। यों भी किसी पुरस्कार को हासिल कर लेने से ज्यादा अच्छा लगता है उसके लिए संघर्षरत रहना। परिणाम से अधिक आनंद प्रयास में मिलता है।

यह सिलसिला युवा, वृद्ध महिला, पुरुष हरेक के लिए फायदेमंद है। देश भर में बुजुर्ग वर्ग की अहमियत को लेकर जो बहस चल रही है, उनका मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ जाना, किसी महत्त्वपूर्ण मामले में उनकी राय जरूरी नहीं रह जाना। उनके व्यक्तित्व और उसके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझते हुए कुछ संस्थाओं ने शोध किए और त्वरित प्रश्नोत्तरी के बाद परिणाम यह मिला कि सिर्फ उन्हीं वर्ग के बुजुर्ग तन्हाई की पीड़ा से गुजर रहे थे, जिन्होंने युवावस्था में खुद को सामंजस्य स्थापित करने वाला नहीं बनाया। ऐसे रिश्ते नहीं संजोए, जिनसे कि आगे ढलती उम्र में वे सक्रिय हो सकते थे। ऐसे बुजुर्ग जो बदलते समाज और तकनीक से जुड़े रहे, सबसे घुलने-मिलने में प्रसन्न रहे, वे कभी अकेले नहीं रहे।

व्यवहार मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अवसाद और तनाव से उपजी कुंठा आज के समय का दुखद सच है। ऐसे में हमारी पीढ़ी अच्छी पुस्तकें पढ़ कर अपने मनुष्य होने, अपनी सूझ-बूझ और विवेक को विकसित कर सकते हैं। आज का समय अनिश्चितता और तकनीक पर आश्रित होने का युग है। ये दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी हैं। ऐसी अटपटी-सी हवा में जोश, जज्बे का सानिध्य किसी आॅक्सीजन से कम नहीं है। नाचना, पढ़ना, गुनगुनाना, खेलना आदि सदैव जोशीले रहने के मूल मंत्र हैं। तुरत-फुरत की हड़बड़ी-गड़बड़ी से इतर एक-दूसरे के साथ जुड़ने में थियेटर भी मददगार है। यह हमें सिखाता है कि स्वस्थ मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, संस्कार, विलासिता, सादगी, सार्थक जीवन आदि की सही परिभाषा क्या है। वह हमें इनमें सही विकल्प चुनने में मदद करता है।

मन को तेज भागने वाला घोड़ा कहा गया है। इसकी लगाम कस कर पकड़नी होती है। तब जीवन की हर अवस्था ऊर्जा से लबरेज हो पाती है। यह भी सच है कि परिवर्तन कोई रातों-रात तो नहीं होते, हौले-हौले होते हैं। कुंवर नारायण चौरानबे साल की उम्र तक सक्रिय रहे। जीवन की हर सांस को वे कामधेनु कहते थे। उनकी कविताओं पर भारत ही नहीं, विदेशों में भी शोध किए जाते रहे हैं। उन्होंने जीवन का कैनवास प्रसन्नता के रंगों से सजाया था। विनोबा भावे अपने ओजपूर्ण भाषणों में सौ साल तक युवा रहने की बात कहते थे और उदाहरण बरगद के पेड़ का देते थे, क्योंकि वट वृक्ष भी इसी का प्रतीक है। उसके भीतर प्रकृति की मूल भावना ‘धैर्य से बढ़ना’ चरितार्थ होती है।