हाल ही में जानी-मानी गायिका आशा भोंसले ने सोशल मीडिया पर एक तस्वीर साझा की, जिसमें सभी लोग मोबाइल फोन पर बेहद व्यस्त दिख रहे हैं। यात्रा के दौरान ली गई इस तस्वीर के साथ बतौर शीर्षक उन्होंने लिखा कि ‘बागडोगरा से कोलकाता तक। मेरे पास कितने अच्छे लोगों का साथ है, लेकिन कोई भी बात करने के लिए नहीं है।’ यह वाकई एक कड़वा सच है कि मौजूदा समय में हर कोई अपनी आभासी दुनिया में इतना व्यस्त है कि साथ में कौन बैठा है, इसकी भी खबर नहीं रहती। घर-दफ्तर की व्यस्तता से लेकर यात्रा की सहजता तक। संवाद की कड़ी टूट गई है। बातचीत का पुल अब न अपनों के बीच बचा है और न ही अपरिचितों के साथ बनाने की कोशिश की जाती है। स्मार्ट गैजेट्स या आधुनिक तकनीक से लैस फोन या टैबलेट की स्क्रीन पर टकटकी लगा कर पाली गई यह व्यस्तता औरों के लिए ही नहीं, खुद अपने लिए भी समय नहीं दे रही है।

बेशक आशा भोंसले का संदेश आभासी दुनिया में खोई आज की जीवनशैली के प्रति सचेत करने वाला है। साथ होकर भी संवाद के गुम होने की स्थितियों के प्रति पीड़ा जाहिर करने वाली बात है। इसे लेकर गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है, क्योंकि इस आभासी दुनिया में आज हर उम्र, हर वर्ग के लोग व्यस्त हैं।
दरअसल, स्क्रीन की टकटकी में कितना कुछ रीत रहा है, इससे कोई बेखबर नहीं है। लेकिन सब कुछ जानते-समझते हुए भी जरूरत के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्मार्ट गैजेट्स को लोगों ने लत बना लिया है।

विचारणीय है कि आपसी संवाद का आधार होता है कुछ जानने की चाह और कुछ साझा करने की इच्छा। लेकिन अब सवालों के जवाब खोजने के लिए इंटरनेट पर ‘सर्च’ कर लिया और साझा करने की सूझी तो इसी आभासी दुनिया में ‘अपडेट’ कर जाने-अनजाने चेहरों तक अपनी बात पहुंचा दी जाती है। नतीजतन, तकरीबन हर उम्र के लोगों की जिंदगी स्क्रीन में झांकने तक ही सिमट कर रह गई है। इस व्यवहारगत बदलाव ने संवाद की कड़ियां भी तोड़ दी हैं। अब न कुछ कहना जरूरी लगता है और न किसी के मन की सुनना। जबकि मानवीय जीवन का आधार आपसी संवाद ही है। सह-अस्तित्व के भाव की सबसे मजबूत कड़ी भी संप्रेषण को ही माना जाता है।

आज भले ही आधुनिक तकनीक हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गई है, पर मशीनें इंसानी संवाद की जगह नहीं ले सकतीं। इसीलिए आज के सफल, सजग और तकनीक में गुम रहने वाले लोगों की एक बड़ी आबादी भीतर के खालीपन से जूझ रही है। वर्चुअल माध्यमों के जरिए बाहरी दुनिया से जुड़ने की जद्दोजहद और बेवजह के आभासी संवाद के चलते अधिकतर लोग आत्मकेंद्रित और अकेलेपन को ही जी रहे हैं। आभासी संसार की दिखावटी दोस्ती और अनर्गल संवाद ने व्यावहारिक हालात इतने विकट कर दिए हैं कि हजारों से बतियाने और पल-पल की बात साझा करने वालों के पास असल में मन की पीड़ा साझा करने वाला कोई नहीं है।

सच यह है कि अजब-गजब सी वर्चुअल भीड़ से घिरे लोग अपनों से ही दूर हो रहे हैं। नतीजतन, सबके बीच रहने और जीने के बावजूद सूनेपन की त्रासदी सभी के हिस्से आ रही है। स्मार्ट गैजेट्स की बदौलत मिला यह अकेलापन दिखाई तो नहीं देता, पर भीतर से बहुत कुछ बिखेर रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि अंतरजाल की दुनिया कहने को तो सबको करीब ले आई है, पर अब असली जुड़ाव का अर्थ ही खो गया है।

दरअसल, स्मार्ट गैजेट्स और आभासी रिश्तों के इस दौर में संवादहीनता बढ़ी है। सामाजिकता का दायरा तो मानो खत्म ही होता जा रहा है। हमारा सामाजिक तानाबाना इस तकनीकी जुड़ाव के चलते कुछ ऐसे बदलावों से गुजर रहा है कि तनाव और उलझनें हर उम्र के लोगों के हिस्से आ रही हैं। ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि तनाव, अवसाद और मन की उलझनों का हल अपनों के साथ किया गया संवाद ही है। अब बातचीत का यह सेतु साथ होकर भी हमें नहीं जोड़ता। यानी निर्भरता की सीमा के पार तकनीक पर निर्भरता। इसका नतीजा है दुनिया भर से जुड़ कर खुद में खोए रहना और अपनों से दूर हो जाना। सबसे जुड़ने के साधन और माध्यम जितने बढ़े हैं, उतना ही हम अपने आपसे और अपनों से दूर हो गए हैं।

यही आज के यंत्रवत हो चले जीवन का कड़वा सच है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरे इस दौर में घर हो या दफ्तर, मशीनों की सहायता के चलते हर काम में लगने वाला समय कम हुआ है। फिर भी आपाधापी ऐसी कि सभी की दिनचर्या और अधिक व्यस्त प्रतीत होती है। लेकिन यह व्यस्तता आभासी अधिक है। स्मार्ट गैजेट्स के चलते अब हथेली में एक ऐसा संसार समाया है कि हर कोई हरदम मसरूफ ही नजर आता है। तकनीक की प्रगति से अलग भी कई पहलू हैं इस यांत्रिक निर्भरता और व्यस्तता के। इस कड़ी में आपसी संवाद का गुम होना एक अहम दुष्परिणाम है।