महावीर सरन जैन
महान सेवा-भावी संत मदर टेरेसा के बारे में मोहन भागवत की सांप्रदायिक टिप्पणी का भाजपा की मीनाक्षी लेखी ने विचित्र तरीके से बचाव किया। अगर कोई महान व्यक्ति यह कहता है कि मैं महान नहीं हूं, मैं सामान्य जीव हूं, मैंने कोई महत्तर सेवा नहीं की या फिर मैं कोई सेवक नहीं हूं, तो ऐसे वक्तव्य उसकी विनयशीलता के प्रमाण होते हैं। भारत के महान संत कबीरदास ने कहा कि मैंने तो केवल दो अक्षर ही पढ़े हैं। उनकी इस आत्म-स्वीकृति के आधार पर मीनाक्षी लेखी जैसे लोग क्या कबीरदास को मूर्ख बताएंगे?
साधक संत की विनयशीलता के वचन उसकी आत्म-पराजय या हीन-भावना की स्वीकृति नहीं होते। वे उसकी आत्मिक-दृढ़ता और आत्म-चेतना की प्रतीति के बोधक होते हैं। मगर यह बोध सबमें होना संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि ऐसे लोग तो राजनीति की कुटिलता और पंकिलता से ग्रस्त होते हैं। वोट बटोरने के लिए धर्म को साधन बनाने वाले लोगों के हर एक वक्तव्य का गुणगान करना और उसे महिमामंडित करना इनकी विवशता होती है।
सामाजिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह ‘अहंकारह्ण का परित्याग कर दूसरों के प्रति विनम्र आचरण करे, जिससे दूसरों के मन को पीड़ा न पहुंचे। व्यक्ति को समाज-निरपेक्ष स्थिति में व्यक्तिगत साधना के धरातल पर भी अपने अहंकार का विसर्जन करना होता है। हृदय की कठोरता और क्रूरता को छोड़े बिना व्यक्ति का चित्त धार्मिक नहीं हो सकता। कारण यह है कि अध्यात्म-यात्रा की सबसे बड़ी रुकावट ‘मैं’ की है। ‘मार्दव’ या विनयशीलता की कई अर्थ-छायाएं और स्तर हैं।
एक दृष्टि से इसका अर्थ है- मृदु, शिष्ट और विनम्र व्यवहार। फिर इसका अर्थ होता है कठोरता का पूर्ण विर्सजन। इसके भी आगे इससे व्यक्ति के अंत:करण के उस गुण का बोध होता है, जिसमें वह किसी भी प्राणी के दुख को देख कर करुणा से अभिभूत और समभाव से देखने का अभ्यस्त हो जाता है। मदर टेरेसा की विनयशीलता का यह स्तर था। शायद मीनाक्षी लेखी जैसे लोग इस स्तर को आत्मसात करने में समर्थ नहीं हो सकते। मदर टेरेसा के चित्त में मैत्री का अजस्र स्रोत प्रवाहित था। विनम्रता और करुणा के शीतल जल-प्रवाह द्वारा उनमें मानवीय प्रवृत्तियों का विकास हुआ था। उनके चित्त की विनम्रता और करुणा ने दूसरों के दुख और पीड़ा को दूर करने के लिए उन्हें सेवाभावी बना दिया था। उनका सेवा-भाव उनके मन का सहज स्वभाव हो गया था। उनका सेवा-भाव वोट बटोरने के लिए नहीं था।
धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन मोहित करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। सभी धर्म के ऋषि, मुनि, पैगंबर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को ओढ़ा नहीं, उसे अपनी जिंदगी में उतारा। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं। इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर संप्रदाय, पंथ आदि का निर्माण कर भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्त्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं।
भारत के सभी महान साधकों ने माना है कि धर्मरूपी वृक्ष का मूल ‘विनय’ है और मोक्ष उसका फल है। अहंकार के आवरण को हटाए बिना अमृत-तत्त्व प्राप्त नहीं हो सकता। समस्त जीवों पर मैत्री-भाव रखने और संसार के जीवों को समभाव से देखने की दृष्टि ‘मृदुता’ से विकसित होती है। मृदुता से उदारता, सहिष्णुता और दृष्टि की उन्मुक्तता का विकास होता है। सत्यानुसंधान के लिए यह आवश्यक है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन के विकास के लिए सभी सदस्यों में परस्पर प्रेमभाव, दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति और एक सदस्य का अन्य के प्रति करुणा और मैत्रीभाव का होना जरूरी है। ‘मार्दव’ से उपर्युक्त गुणों का विकास होता है। मदर टेरेसा के जीवन में हम ‘मार्दव’ से उपर्युक्त गुणों का विकास पाते हैं। उन्होंने अपने जीवन में सहन-शक्ति का विकास किया था। उनके मन में समाज के सभी दुखी और साधनहीन लोगों के प्रति सहज अनुराग और मैत्रीभाव था।
धर्म का सबसे अधिक अहित उन ताकतों ने किया है, जिन्होंने इसका इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए किया है। इस कोटि के लोग मदर टेरेसा जैसे लोगों की सेवा-भावना का मूल्यांकन नहीं कर सकते। मदर टेरेसा का मूल्यांकन करने के लिए अनाग्रह, सहिष्णुता और उदारता के गुणों से लैस और सांप्रदायिकता के बंधनों से मुक्त होना भी जरूरी है।
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