बिंदु चौहान
नई कहानी के दौर में सुदूर इलाहाबाद में बैठ कर किस्से-कहानियां गढ़ने वाले रचनाकार अमरकांत ने हिंदी कथा-साहित्य को नायाब कहानियां दीं। तमाम निजी परेशानियों, अभावग्रस्त जीवन और मामूली-सी नौकरी के सहारे अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने वाले अमरकांत की कहानियां कथा सम्राट प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ती हैं। यह अमरकांत की कहानियों का जादुई स्वाद ही है कि सिद्धेश्वरी की रसोई में बनने वाली मोटी, भद्दी रोटी, पनियल दाल और साथ में चने की तली तरकारी का स्वाद हिंदी साहित्य के ज्यादातर पाठकों को याद होगा।
उन्होंने ‘दोपहर का भोजन’ में पनियल दाल के साथ रोटी और चने की तरकारी परोसने के साथ प्रमोद की ‘बासी ककड़ियों जैसे हाथ-पैर’ और ‘हंडिया जैसे फूले पेट’ की जो जीवंत तस्वीर खींची थी, वह यथार्थ को सीधे चित्रित करती है। रामचंद्र ‘बड़कू’ का भोजन की ओर ‘दार्शनिक की तरह देखते हुए’ चुपके से रोटी के टुकड़े को उठा कर मुंह में रख लेने, मुंशी चंद्रिका प्रसाद का ‘बूढ़ी गाय की तरह जुगाली करके’ रोटी को चबाने और अंत में सिद्धेश्वरी द्वारा मुंह में पहला निवाला लेते ही आंखों से टप-टप आंसुओं के बहने के पीछे छिपी भूख की जिस पीड़ा, चुभन और संघर्ष को अमरकांत ने अभिव्यक्त किया, भारत के करोड़ों लोग आज भी हर रोज अपनी थाली में उसी टीस और संघर्ष से जूझते हैं।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशके के सफर में भी भूख की वह वेदना और अधिक भयावह दिखाई पड़ रही है। भारत की कुल जनसंख्या के करीब एक चौथाई हिस्से को ठीक से एक कौर भात भी नसीब नहीं होता। आंकड़े बताते हैं कि प्रति-व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय स्तर में इजाफा हुआ है। पर यह इजाफा और विकास एक खास तबके तक ही सीमित है और उससे भारत का दूसरा बड़ा वर्ग अछूता है। भुखमरी से निपटने के लिए ‘मध्याह्न भोजन योजना’ भारत सरकार द्वारा देशभर में लागू की गई, जो पूरे भारत में बारह करोड़ बच्चों को दोपहर का भोजन मुहैया कराने के लक्ष्य को लेकर चलाई जा रही है। लेकिन आज मंगल ग्रह तक पर अपनी दावेदारी ठोंकने वाले इस देश में अल्पपोषित ओर कुपोषित बच्चों की संख्या चालीस फीसद से ज्यादा है। कभी ‘ओड़िशा का चावल कटोरा’ कहलाने वाला कालाहांडी विश्व-पटल पर भूख और भुखमरी का पर्याय बन चुका है।
कालाहांडी जिले का सबसे गरीब और अभावग्रस्त प्रखंड थुआमुल रामपुर है। सरकार के विकासवादी दावों की पहुंच से मीलों दूर यह क्षेत्र आज भी विश्व के गरीब और भुखमरी से ग्रस्त क्षेत्रों के नक्शे में दर्ज है। यहां के सरकारी माध्यमिक विद्यालय में ‘खरा बेला’ यानी दोपहर के खाने की घंटी बजते ही ‘मध्याह्न भोजन योजना’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ की जमीनी सच्चाई और नेताओं के विकासवादी भ्रष्टाचार मुक्त देश की पोल-पट्टी खुल जाती है। खरा बेला के खाने के इंतजार में सुबह से ही खाली पेट से किताब को चिपकाए पाठ को चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ने वाले बच्चे घंटी बजते ही स्कूल के आंगन में धंसे अकेले चापाकल पर मक्खियों की तरह टूट पड़ते हैं। आसमानी रंग की शर्ट-स्कर्ट पहने, लाल फीते से गुंथी दो चोटी बनाई बच्चियां खाली पैर एकटक एल्युमीनियम की कनात में रखी पनियल दाल और मड़गीला भात मिलने की आस में थाली में पड़ने वाले अपने हिस्से को बड़कू से भी गंभीर दार्शनिक भाव से देखती है। स्कूली रजिस्टर में प्रति बच्चा सौ ग्राम चावल और सौ ग्राम दाल आबंटित है। लेकिन शायद ही कभी बच्चों को निर्धारित मात्रा और गुणवत्ता वाला खाना मिलता है।
खरा बेला में बांटे जाने वाले खाने में जाति, धर्म, लिंग आदि स्तरों पर कई असमानताएं देखी गर्इं। कई जगहों पर उच्च कही जाने वाली जाति के बच्चों को अलग से थाली और गिलास देने या दलित और आदिवासी बच्चों की थाली अलग टोकरी में पड़े होने की खबरें आ चुकी हैं। खाना खाने के बाद दलित और आदिवासी बच्चे जहां चापाकल पर जाकर अपनी थाली खुद धोते दिखे, वहीं गैरदलित बच्चों की थाली वहां नियुक्त सहायिका साफ कर रही थी। ऐसे दृश्य अकेले कालाहांडी के थुआमुल रामपुर के ही नहीं हैं। बिहार, बंगाल या देश के ज्यादातर राज्यों के दूरदराज के इलाकों में जाकर खुद यह सब देखा जा सकता है। अमरकांत ने तो कम से कम पनियल दाल-रोटी के साथ चने की तरकारी भी परोसी थी। लेकिन सरकारी थाली से तो वह तरकारी भी आज नदारद दिखती है। क्या सचमुच खाली पेट की तड़प, एक कौर अन्न की लालसा, रोटी के एक टुकड़े का सुख, आर्थिक विषमता की खाई आज अधिक गहरी और गाढ़ी हो गई है?
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta