वरुण शर्मा

जिन आदिवासी समुदायों की भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं, उनके बच्चों को आज एक दोराहे पर खड़ा कर दिया गया है। एक तरफ घर-परिवार में बोली जाने वाली भाषा है तो दूसरी तरफ विद्यालयी भाषा। खुद की भाषा भूलते हुए विद्यालयी भाषा सीखने में आ रही समस्या को हल करने में हमारी शिक्षण प्रणाली असमर्थ नजर आ रही है। फ्रिएरे ने कहा है- ‘हर शब्द के पीछे एक पूरा संसार खड़ा होता है।’ इस लिहाज से देखें तो ‘कुई’ जैसी भाषाएं (कोंध आदिवासी समाज में बोली जाने वाली भाषा) अपने आप में पूर्ण हैं और कई सदियों से अपने पीछे एक पूरा संसार लेकर चल रही हैं। लेकिन हर भाषा के खोने के साथ सिर्फ भिन्न प्रकार की आवाजें नहीं खो रही हैं, बल्कि क्षेत्र विशेष का इतिहास, विज्ञान, भूगोल, उपस्थित जैवीय विविधता का ज्ञान भी खो रहा है। यानी सदियों में खड़ी हुई एक पूरी ज्ञान प्रणाली विलुप्त हो रही है।

सब तरफ अंगरेजी का शोर है और इसके कारण भी हैं। पर इसे हम खो रही ज्ञान प्रणालियों (भाषाओं) को बचाने के काम में आड़े नहीं आने दे सकते। इक्कीसवीं सदी में हर समुदाय को स्कूल से जोड़ने का युद्ध स्तर पर अभियान चल रहा है। ऐसे में शिक्षा किस भाषा के माध्यम से स्कूली वातावरण में समाहित की जाए, यह एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक मुद्दा बन गया है। इस सवाल से भागने का मतलब होगा कि हर वह बच्चा जो शैक्षिक भाषा के कारण आगे नहीं बढ़ पाया, उसके प्रति हम नैतिक रूप से जिम्मेदार होंगे। ज्यों-ज्यों समय निकलता जाएगा, काम और आसान होता जाएगा और एक समय के बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, क्योंकि कम से कम बिना ‘लिखित लिपि’ वाली अधिकतर भाषाएं मर चुकी होंगी। रह जाएंगी तो हमारी स्कूली ‘राज्य भाषाएं’ और कुछ अन्य भाषाएं, जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ ली। इस ‘कत्ल’ के जिम्मेदार हम होंगे- शिक्षित और समाज के विभिन्न पायदानों के ठेकेदार लोग।

खैर, कुछ समय पहले मैं विश्व शौचालय दिवस पर एक जागरूकता अभियान का हिस्सा बना। हमें ओडिशा के गंजम जिले के रुढ़ापदर प्रखंडके आसपास के गांवों में रैली निकालनी थी। अभियान के दौरान कुछ बच्चे एकदम चुप थे। मैं एक बच्चे की ओर देख कर मुस्कराया। पर बच्चा पलट कर मुस्कराने के बजाय और सिमट गया। ये वे बच्चे हैं, जो ‘कुई’ भाषा जानते हैं और जिन्होंने कुछ समय पहले ओड़िया माध्यम के स्कूल में प्रवेश लिया है। मैंने साथ चल रहे संस्था संयोजक से कहा कि बच्चे कितने चुप हैं, तो उन्होंने जो एक बात कही वह आदिवासी विकास के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर कार्यकर्ताओं के अनुभव का प्रतिबिंब थी- ‘आदिवासियों के पास कोई आवाज नहीं है!’ उन्होंने जैसे कहा, उसमें कोई चिंता नहीं थी। शायद जब हम सामाजिक क्षेत्र में लंबे समय तक काम कर चुके होते हैं, तो कुछ बातों की गहराई में जाने के बजाय, उन्हें बहुत हलके में लेने लगते हैं।

वहां बच्चों की चुप्पी का सीधा कारण था शर्म और भाषा को नहीं जानना। वहां नारे ओड़िया में लगाए जा रहे थे और बातचीत भी इसी भाषा में हो रही थी। जब आपके शिक्षक, आपके आसपास के नए लोग ऐसी भाषा में बोल रहे हों जो आपको नहीं आती हो, तो आप क्या करेंगे। बच्चों पर भी मानसिक, सामाजिक और शैक्षिक दबाव बन जाता है, अपनी भाषा ‘छोड़ कर’ अन्य भाषा का दामन पकड़ने का। कुछ बच्चे लड़ लेते हैं, अन्य को पढ़ाई में कमजोर मान कर पीछे धकेल दिया जाता है। इस मामले में हमारी मानकीकृत होती शिक्षा प्रणाली बेहद दमनकारी बन चुकी है। धीरे-धीरे यह हमारी विविध भाषाओं का दमन कर रही है, समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को झूठा सपना दिखा कर उन्हें उनके अपने ही संसाधनों से दूर कर पिछड़ा बना रही है।

मेरी आपत्ति उस शिक्षा प्रणाली से है जो अंगरेजी या कुछ अन्य भाषाओं को भविष्य की तरह प्रस्तुत कर रही है। यह एक भाषा को अव्वल, दूसरी को दोयम दरजे का प्रस्तुत कर रही है और गैर मानकीकृत शिक्षा प्रणालियों को कूड़ेदान में डाल देने के विचार को प्रोत्साहित कर रही है। नई पीढ़ी के सामने हम जो प्रस्तुत करेंगे, वही उनके समय का सच बनने वाला है। मेरा सवाल है कि हम कुछ के सच को सबका सच बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? क्यों न हम नई पीढ़ी को सारे पायदान दिखाने का प्रयास करें और भविष्य में फिर उन्हें चुनने का मौका दें! एक प्रकार की शिक्षा प्रणाली सभी के लिए कारगर नहीं हो सकती, शिक्षा प्रणाली से हमें फैक्ट्री के उत्पाद पैदा नहीं करने हैं, बल्कि इंसान बनाने हैं, जो अच्छे से सुन सकें, आंखें खोल के देख सकें और देखे-सुने को खुद ही परिष्कृत कर सकें। भारत एक विविधताओं से भरा हुआ देश है। लेकिन हम विविध शिक्षा प्रणालियों पर काम करने के बजाय विविधता को ही मिटाने पर लगे हैं।

 

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