सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी

विदिशा के कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला तो मध्यप्रदेश के कुछ मंत्रियों और विधायकों से पत्रकारों ने प्रतिक्रिया पूछी थी। उन्होंने कैलाश नाम से कैलाश विजयवर्गीय को समझ कर उत्तर दिए थे। मंत्री और भाजपा के विधायक खुश थे कि उनके साथी को नोबेल मिला है। यहां तक कि एक कांग्रेसी और बसपा विधायक ने भी कैलाश विजयवर्गीय ही समझ कर कहा कि उन्हें प्रदेश और देश में एक ही पार्टी का शासन होने का लाभ मिला। किसी को भी यह नहीं सूझा कि इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला को संयुक्त रूप से मिला है और सत्यार्थी ने करीब अस्सी हजार से अधिक बच्चों को बंधुआ मजदूरी से मुक्ति दिलाने का सराहनीय कार्य किया है।

इसकी चर्चा पिछले दो माह से हो रही थी, फिर भी हमारे नेता उससे अनभिज्ञ थे और उन्होंने बड़े तपाक से अपने साथी को नोबेल पुरस्कार से जोड़ दिया। किसी ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि कैलाश सत्यार्थी और कैलाश विजयवर्गीय दो अलग व्यक्ति हैं और दोनों के कार्यक्षेत्र बिल्कुल अलग हैं। पर मीडिया के सामने खुद को बिंदास और सर्वज्ञानी बताने की ललक नेताओं को कहां से कहां ले जाती है, यह इस घटना से साबित होता है।

जब कोई बच्चा गलत जवाब देता है तो शिक्षक ही नहीं, स्कूल के प्रधानाध्यापक को भी निलंबित कर दिया जाता है। पर इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, जिन्होंने सामान्य ज्ञान से भी अनभिज्ञ होने का कारनामा किया है? सच ही कहा जाता है कि सामान्य ज्ञान बेहद असामान्य गुण है और गिने-चुने लोगों में पाया जाता है। पर अपने ही प्रदेश और भोपाल के बेहद करीबी जिले विदिशा में काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी जैसे मशहूर व्यक्ति से अनजान बने रहना और तपाक से नोबेल पुरस्कार को अपने साथी कैबिनेट मंत्री से जोड़ देना क्या इतनी छोटी बात थी कि उसे अनदेखा किया जाए? मंत्री और विधायकों को निलंबित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? मुख्यमंत्री खुद कुछ दिन पहले सत्यार्थी से मिल कर उन्हें बधाई दे चुके हैं और प्रदेश की ओर से हर्ष व्यक्त कर चुके हैं। फिर उन्हें ऐसे ऊलजलूल उत्तर देने वाले मंत्री को मंत्रिमंडल में रख कर क्यों बदनाम होना चाहिए?

अक्सर मंत्री, सांसद और विधायक ऐसे उत्तर देकर खुद को ही नहीं, अपनी पार्टी को भी शर्मसार करते हैं। पूछा कुछ जाता है और जवाब वे कुछ और देते हैं। लगता है कि ये लोग खुद को नियम-कायदे से ऊपर समझते हैं। पर सुर्खियों में बराबर बने रहना चाहते हैं। श्रेय लेने में भी सबसे आगे रहते हैं। पर जवाबदेही और प्रामाणिकता की चिंता नहीं करते। और फिर उनका यह भी तर्क रहता है कि यही सब तो पिछली सरकार और विरोधी दल भी करते रहे हैं, फिर भला उन्हीं से सारी अच्छाइयों और ऊंचे आदर्शों की उम्मीद क्यों की जानी चाहिए?

बड़ा मासूम-सा तर्क है कि भ्रष्टाचार और अपना-अपना खयाल रखना तो व्यवस्था का अंग है, जो सदियों से चल रहा है, उसे भला वे कैसे रोक सकते हैं? यानी सभी बुराइयां शाश्वत हैं और जीवन का अभिन्न अंग बन गई हैं। यानी वे हमारे खून में शामिल हो गई हैं। जहां हम हैं वहां बुराइयां भी हैं। और लोग इतना डरपोक हो गए हैं कि गलत बात को गलत मान कर भी उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते।

बात सिर्फ राजनीति की नहीं है। सभी क्षेत्रों की यही स्थिति है। क्या शिक्षा, क्या चिकित्सा, क्या प्रशासन और क्या न्यायालय और संचार माध्यम। आप किसे पाक-साफ, सौ फीसद ईमानदार और कर्तव्य के प्रति समर्पित बता सकते हैं? क्या सभी ओर आपाधापी और शर्मिंदगी की हद तक गैर-जवाबदेही नजर नहीं आती?

यह आम चलन है कि हम दूसरों पर तो अंगुली उठाते हैं, पर खुद को आईने में नहीं देखते। बुराइयां भी दूसरों में देखते हैं और अच्छाइयों की उम्मीद भी दूसरों से ही करते हैं। पर खुद अपनी ओर नहीं देखते। यह हमें सुविधाजनक और फायदेमंद लगता है। इस पर भी विडंबना यह कि जो कुछ अच्छा होता है उसका श्रेय तो हम खुद लेना चाहते हैं और जो बुरा होता है उसके लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराते हैं।

बात केवल राजनेताओं की नहीं है। राजनीति में तो कोई उपाधि जरूरी ही नहीं मानी जाती, जबकि राजनेताओं और मंत्रियों के चपरासियों तक के लिए न्यूनतम योग्यता जरूरी मानी गई है। सभी जगह सामान्य ज्ञान का होना असामान्य और दुर्लभ ही पाया जाता है। चलन ही कुछ ऐसा है कि हर नकारात्मक काम की ज्यादा पूछ-परख है। जैसे कि खराब खेलने पर सट्टेबाज अधिक पैसे देते हैं और खबर छिपाना राजनीति और मीडिया दोनों में अधिक लाभदायी है। क्या यह त्रासद नहीं है?

 

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