विजया सती

उत्तरी और दक्षिणी भागों में विभाजित होने से बहुत पहले जोसन शासनकाल में कोरिया ‘हरमिट किंगडम’ के रूप में जाना जाता था। आधिपत्य की लालसा का कोई अंत नहीं। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में इस एकांत पर जापान ने शासन स्थापित किया। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर पैंतीस वर्ष के जापानी शासन से मुक्ति अवश्य मिली, लेकिन देश को शीतयुद्ध का ताप झेलना पड़ा। दो अलग-अलग सरकारें बन गर्इं। कालांतर में विभाजन अपरिहार्य हुआ। दुख का अंत यह भी न था। उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच 1950 में जो भीषण युद्ध आरंभ हुआ तो खत्म 1953 में ही हो सका। लेकिन इस दौरान दोनों ओर जीवन में जो टूटा-बिखरा था, उसे संवारने के यत्न अब तक जारी हैं। इस सिलसिले की एक कड़ी के रूप में आजकल एक फिल्म सुर्खियों में है जो पिछले दिनों दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल में प्रदर्शित की गई। ‘ओड टू माई फादर’ फिल्म की कहानी का संबंध इसी ऐतिहासिक घटनाक्रम से है।

यह एक परंपरागत कोरियाई परिवार के बड़े बेटे देक्सू के जीवन के पांच दशकों की कहानी है। युद्ध के दौरान विस्थापन की भगदड़ के बीच छोटी बहन, जो बड़े भाई देक्सू का हाथ पकड़े थी, अचानक बिछड़ जाती है। पिता उसे खोजने के लिए जाते हुए देक्सू से परिवार की देखभाल करने का आग्रह करते हैं, क्योंकि वह बड़ा बेटा है। पानी के जहाज में लद कर तटीय शहर बुसान पहुंचने के बाद देक्सू अपने परिवार का अभिभावक बन जाता है। वह पिता की जगह लेकर मां-बहन और छोटे भाई का भरण-पोषण जी-जान से करता है। कठिन परिस्थिति में अपना यौवन और तमाम सपने भुला कर रोजगार की तलाश में जर्मनी की कोयला खान में काम करता है और पैसा कमाने के लिए वियतनाम भी पहुंचता है। फिल्म में आधुनिक कोरियाई इतिहास के महत्त्वपूर्ण क्षणों का साक्ष्य है। इस कारण फिल्म के माध्यम से कोरियाई पुरानी पीढ़ी अपने उन वास्तविक अनुभवों को जी रही है जो अब इतिहास बन गए हैं। देश की नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी की उस व्यथा और त्याग का साक्षात्कार कर रही है, जो इतिहास-सम्मत है।

दिलचस्प यह है कि ‘ओड टू माइ फादर’ अपने निर्देशक के जीवन का ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। अपने पिता को एक संबोधन या उनके जीवन के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप निर्मित इस फिल्म के विषय में निर्देशक की आत्मस्वीकृति है- ‘जब मैं कॉलेज में ही था, तो मेरे पिता नहीं रहे। उस समय मैं उन्हें धन्यवाद तक न कह सका था। अब यह समय आया है।’ उनकी आशा है कि फिल्म पुरानी और नई पीढ़ी के बीच एक ऐसा संवाद स्थापित कर सकेगी जो उनके लिए संभव नहीं हुआ था। इस फिल्म के नायक और नायिका के नाम फिल्म निर्देशक के माता-पिता के वास्तविक नाम हैं।

कोरियाई जीवन में परिवार का महत्त्व सर्वोपरि है। कन्फ्यूशियन विचारधारा के गहरे प्रभाव को आत्मसात करने वाला कोरियाई समाज यह मानता है कि माता-पिता के प्रति हम कभी उऋण नहीं हो सकते। इसलिए यहां के रीति-रिवाजों में पूर्वज-पूजा काफी अहम है। साल में दो विशेष अवसरों- छूसक और नववर्ष पर तीन पीढ़ियों के प्रति आदर व्यक्त करने के नियम का आज भी पालन किया जाता है। वर्तमान समय में फिल्म की लोकप्रियता की तह में इसी भावधारा को पाया जा सकता है। इसलिए कोरियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध और उत्तर और दक्षिण कोरिया में बिछुड़े परिवारों के पुनर्मिलन की वास्तविक घटनाओं का सजीव अंकन करने वाली फिल्म के विषय में कला मर्मज्ञों का कहना है कि पीढ़ियों के बीच संवाद और सामाजिक सम्मिलन को बढ़ावा देने के लिए ऐसे सांस्कृतिक विषयों की महत्ता असंदिग्ध है।

देश की राष्ट्रपति महोदया पार्क ने इस फिल्म को न केवल फिल्म-प्रतिनिधियों और कलाकारों के साथ बैठ कर देखा, बल्कि दर्शक के रूप में उनके साथ वे लोग भी उपस्थित थे जिन्होंने साठ और सत्तर के दशक में जर्मनी में नर्स और कोयला खान मजदूरों के रूप में कार्य किया था। उन परिवारों के सदस्य भी थे जो विभाजन के बाद अपने प्रियजनों से बिछुड़ गए थे। यह फिल्म प्रमाण है कि कोई भी बेहतर सांस्कृतिक कथ्य समाज को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। शायद कोई पुस्तक यह सत्य नहीं समझा सकती जो यह फिल्म समझाती है।

पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण की दोहरी प्रक्रिया जिस तरह कोरिया के युवा वर्ग को बहाए लिए जा रही है, उसमें निश्चित ही यह फिल्म एक भिन्न वातावरण निर्मित करती है और देशवासियों को गहरे आंदोलित करती है। इसने सर्वथा अछूते एक अन्य पहलू को भी छुआ है। कला और पर्यटन के सामंजस्य ने देश की अर्थव्यवस्था को इस तरह पुनर्जीवित किया है कि जिस पारंपरिक भीड़ भरे बाजार में देक्सू का परिवार आजीविका के लिए आरंभिक संघर्ष करता है, सहसा वहां पर्यटकों का हुजूम उमड़ पड़ा है।

 

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