निरंजन देव शर्मा
बचपन कुल्लू में बीता। उन दिनों ठीक-ठाक बर्फ गिरती थी। उसके बाद पिछले सोलह वर्षों से कुल्लू में रह रहा हूं, लेकिन ऐसी बर्फबारी पहली बार देखी। शनिवार रात ग्यारह बजे से बर्फ गिरनी शुरू हुई तो रुक-रुक कर रविवार दोपहर बाद तक गिरती रही। शनिवार की रात को बत्ती गुल हुई तो करीब पांच दिनों तक पूरा शहर तो क्या पूरा जिला अंधकार में डूबा रहा। ऐसी भी कोई ज्यादा बर्फ नहीं गिरी। आधा फुट ही तो गिरी। जिला मुख्यालय के आसपास अधिक ऊंचे स्थानों पर तो समझ आता है, जहां ढाई-तीन फुट तक बर्फबारी हुई! क्या हम सचमुच इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, जहां इतनी भर बर्फबारी से बिजली-पानी कई दिनों के लिए ठप्प हो जाता है।
स्कूल में परीक्षाओं के प्रश्नपत्र फोटो स्टेट होने थे। मुझे किसी जरूरी काम से सुंदर नगर जाना था। सोचा, प्रश्नपत्र भी फोटो स्टेट हो जाएंगे। पर गाड़ी कैसे निकाली जाए। स्कूल कर्मचारियों की मदद से बर्फ हटा कर गाड़ी निकालने के लिए थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी, पर कामयाबी मिल गई। बर्फ गिरने के दो दिन बाद भी मंजर देखने लायक था। कुल्लू से औट तक जगह-जगह पेड़ गिरे पड़े थे, बिजली की तारें सड़कों पर बिछी पड़ी थी और कंक्रीट के खंभे टूट कर झूल गए थे। पहाड़ी शहरों में बिजली के तारों की भूमिगत व्यवस्था कितनी जरूरी है, इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता!
सुंदरनगर से लौटने में देर हो गई थी। अनुमान था कि घर पहुंचते-पहुंचते दस बज जाएंगे। नौ बजे के करीब औट पहुंचा था। औट वर्षों से कुल्लू आने-जाने वाले यात्रियों के लिए चाय-पान का ठहराव स्थल रहा है। कभी तो दो-एक दुकानें होती थीं, जिनमें से एक के मालपुए मशहूर थे। अब तो कतार में छोटी-छोटी दुकानें हैं, जहां चाय-पकौड़ों के अलावा आसपास के पहाड़ी गावों से आने वाले अखरोट, अनारदाना, धनिया और ऐसी कई चीजें बिकती हैं, जिन्हें पहाड़ के शहरी आते-जाते खरीदते हैं।
बत्ती यहां भी गुल है। मैंने एक चाय वाले के पास गाड़ी लगा दी। चायवाला पकौड़े तल रहा था। मैंने एक कप चाय के लिए कहा। ‘साबजी, पकौड़े भी दे दूं गरमा गरम!’ ‘चटनी कौन-सी है?’‘अनारदाने-पुदीने की… और हाथ की पिसी हुई है जनाब, मिक्सी वाली नहीं है। खा के देखो जरा।’ ‘इसमें क्या खास है भई!’
‘खा के तो देखो साबजी अपने आप पता चाल जाणा आपको। मशीनी और हाथ की बनी चीज में स्वाद का फर्क होता है जी… अब बिजली का जमाना है जनाब, मिक्सी चलाई होर मिनटों में चीज तैयार। हाथ के काम में टैम लगता है साबजी, पर स्वाद का फर्क भी तो है।’ ‘बात तो सही है। चटनी पीसी कैसे है, कुंडी-डंडे या सिल-बत्तू से?’ मैंने पकौड़ों के साथ चटनी का जायका लेते हुए पूछा। ‘साबजी बी खरे जानकार लगते हैं। सिल-बत्तू तो जनाब अब गांव में भी कहीं गाय के ओबरे में पड़े मिलते हैं। कुंडी-डंडे से पीसी है जनाबजी।’ ‘ये जो लैंप जला रखे हैं न तुमने, बचपन में हम भी बनाते थे ऐसे ही, बस बोतल का फर्क था। तब भी लाइट ऐसे ही जाती थी कुल्लू में, कई-कई दिन तक।’ मैंने शराब की खाली शीशियों में बत्ती डाल कर केरोसिन से जलने वाले लैंप की ओर देखते हुए कहा। ‘अच्छा, ये मिट््टी का तेल मिल जाता है आजकल?’
‘मिलता क्या नीं है साबजी। दस-बीस की चीज के चालीस-पचास देने पड़ते हैं। अच्छा, इक गल्ल बोलूं जनाबजी। जे लाइट गई कने सारी पुराणी चीजें निकल आर्इं। चैनिज लैट फेल है जनाबजी। बंदे ने जुबान की गरंटी दी जे बारा घंटे चलेगी बैटरी। मैं बताऊं साबजी, घंटे-डेड घंटे बाद बैटरी गुल। टेंपरेरी काम वास्ते ठीक है साबजी, पर ऐसे टैम वास्ते ता देसी फार्मूलाई कामयाब है। चटनी होर देऊं साबजी।’ मुझे चटखारे लेकर खाते देख उसने पूछा। मुझे भी बातों में मजा आ रहा था। ‘थोड़ी-सी डाल दो और पाव भर पकोड़े चटनी के साथ पैक कर दो, घर ले जाता हूं।’
‘हुणी लो जनाब जी। इक गल बोलूं जनाब, आजकल इतनी गप्प लगाने का टैम बी किसके पास है। सवरियां दी आजकल फोन पर ई गप्प खत्म नी हुंदी। तिन दिन हो गए जनाब लाइट गई जो, अपणा फोन बी बंद। जनाबजी का फोन ता कार में चार्ज हो जाता होएगा। बस बीबी-बच्यां की सुख सांत हो जाती है जी, इस वास्ते रख छड्या। पर है बमारी जी।’ ‘भई हर चीज का फायदा-नुकसान दोनों है। इस्तेमाल करने वाले की समझदारी है कि किसी सुविधा का इस्तेमाल कैसे करे।’ ‘लख टके दी गल्ल गलाई साबजी ने। ल्या जनाब पकौड़े-चटनी पैक।’ इस बीच चाय वाले के पास एक और गाड़ी आ कर रुकी गई थी। मैं चल पड़ा था। अभी घंटे भर का सफर बाकी था।
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