अमित चमड़िया
आपदा या संकट कई बार मनुष्य के वास्तविक विकास और उसके स्तर को समझने में मदद करते हैं। मौजूदा दौर के संकट ने भी समाज में कई सच्ची कहानियों को जन्म दिया है। कुछ समय पहले बिहार के सिवान में न्यायाधीश के पद पर काम करने वाले एक व्यक्ति ने अपने पिता का शव लेने से मना कर दिया, क्योंकि उनकी मृत्यु कोरोना के संक्रमण के कारण हुई थी। उसे डर था कि शव को घर में लाने पर घर के लोगों में संक्रमण फैल जाएगा। उस शव का अंतिम संस्कार जिला प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद एक गैर-पारिवारिक व्यक्ति के द्वारा किया गया। इसी तरह बिहार के सासाराम में भी एक युवा लड़के की कोरोना संक्रमण से मौत के बाद उसके शव का दाह संस्कार श्मशान घाट पर काम करने वाले लोगों के द्वारा किया गया। दाह-संस्कार करने वाले लोगों को एक निर्धारित रकम दी गई, जैसे किसी अन्य काम को पूरा करने के लिए राशि चुकाई जाती है।

देश के अन्य भागों से भी इस तरह की खबरें पढ़ने और सुनने को मिलीं। इस महामारी के प्रथम चरण में भी जब किसी इलाके में कोई इस विषाणु के संक्रमण से ग्रस्त हो जाता था, तो उस समूचे इलाके को ही सील कर दिया जाता था यानी उसमें किसी भी व्यक्ति के आने-जाने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाती थी। लेकिन यह स्थिति महामारी के दूसरे चरण में ज्यादा देखने को नहीं मिली। या फिर ऐसा हुआ होगा तो उसे सुर्खियां पिछले साल के मुकाबले कम मिलीं।

ये तमाम घटनाएं इस बात को उजागर करती हैं कि हम जीवन में कितने तार्किक हैं या फिर हम कुछ करते हुए तार्किक रह रह पाते हैं। हमने अपनी पढ़ाई की उपयोगिता को व्यावहारिक जीवन में नहीं उतारा है। सवाल है कि अगर यह संक्रमण छुआछूत की बीमारी होती तो क्या यह दाह संस्कार करने और श्मशान घाट पर काम करने वाले या फिर अन्य लोगों या गैर-पारिवारिक सदस्यों को नहीं होती? हम सभी जानते हैं कि भारत का जनसंख्या का घनत्व बहुत ज्यादा है और इसमें छुआछूत से होने वाली बीमारी के फैलने की असीम संभावनाए हैं, क्यों हमारे देश में सदियों से चली आ रही एक ‘छुआछूत की बीमारी’ पहले से मौजूद है, जिसने बहुत सारे लोगों को अपना शिकार बनाया हैं। फर्क यह है कि जीवन बचने या नहीं बचने के सवाल से यह छुआछूत नहीं जुड़ा और इसका परिप्रेक्ष्य सामाजिक रहा, इसलिए इससे लोगों को डर नहीं लगा। इस संक्रमण के कारण जान गंवाने वाले लोगों के शव ढोने वाले एंबुलेंस चालकों की इसी बीमारी से मौत के बारे में सुनने को नहीं मिला।

हालांकि बाद में चिकित्सा जगत के विशेषज्ञों की ओर से ऐसी खबरें भी आईं कि शव से संक्रमण फैलने का खतरा नहीं होता। इसके अलावा, महामारी से निपटने के लिए जारी दिशानिदेर्शों के मुताबिक इसे लापरवाही कह सकते हैं, लेकिन कई जगह यह भी देखने को मिला कि एंबुलेंस चालक मास्क का भी उपयोग नहीं कर रहे थे। कोरोना गंभीर बीमारी है, लेकिन जिस तरह से उसके बारे में धारणाएं बनी या बनाई गईं और उनका उपयोग किया गया, उससे लोगों में भय व्याप्त हो गया।

भय मन और शरीर में किस तरह का उथल-पुथल मचाता है, इसका अध्ययन किए जाने और इसके निष्कर्षों से आम लोगों को परिचित कराए जाने की जरूरत है। केवल भय के कारण लोगों के मरने या आत्महत्या कर लेने की खबरें आती रहती हैं। सवाल यह है कि ‘क्वांटम मैकेनिक्स’ और ‘डीएनए विज्ञान’ की जानकारी रखने वाले लोग भी अपने व्यावहारिक जीवन में इतना अतार्किक क्यों हो जाते हैं? यह माना जाता है कि विज्ञान की समझ रखने वाले ज्यादा तार्किक होते हैं, लेकिन यह देखने में आया कि विज्ञान समझने का दावा करने वाले लोग ही ज्यादा अतार्किक नजर आए। दरअसल मनुष्य जब अपने आम जीवन में तर्क करने की आदत छोड़ देता है और खुद अपने से सवाल करने से डरने लगता है तो उसका ज्ञान केवल किताबों के पन्नों तक सिमट कर रह जाता है। यों कोई भी सत्ता नहीं चाहती है कि उसके लोग तार्किक हों और सवाल करें।

व्यवहारिक ज्ञान का अपना खास महत्त्व है। कई बार यह शोध और अनुसंधान में काफी मददगार साबित होता है। तर्क की आदत खत्म होने से हम सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाते हैं। शोध का संबंध केवल विज्ञान से नहीं है, सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र भी शोध का उतना ही महत्त्व है। आखिर विज्ञान में हुए शोध का उपयोग समाज ने नहीं किया तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाता कि समाज और प्रकृति को जानना ही ज्ञान है। इसको समझने के तरीके अलग-अलग हैं। संचार के माध्यम में उन सामग्रियों पर जोर देना चाहिए जो व्यक्ति के भीतर तर्क और विमर्श करने की क्षमता को आगे बढ़ाए, अन्यथा संकट के गहराते दौर में मनुष्य बहुत लाचार और डरा हुआ नजर आएगा। ऐसी स्थिति में आसान लड़ाइयां भी बेहद मुश्किल हो जाती हैं और कई बार जीती हुई लड़ाई भी हाथ से निकल जाती है। सावधानी डर का पर्याय नहीं होना चाहिए। अगर सावधानी के साथ हौसला, हिम्मत और विवेक कायम रहे, तो इंसान बड़े संकट और चुनौतियों से पार पा सकता है।