भावना मासीवाल
मनुष्य जब अपनी लालसाओं की सीमा को तोड़ देता है तो प्रकृति अपना चक्र आरंभ कर देती है। वह कभी आपदा के रूप में सामने आती है तो कभी विनाश के रूप में। दोनों ही स्थितियों में वह अधिक घातक और मारक होती है। आज का समय भी शायद इसी विनाश से मनुष्य जाति को बचाए रखने का है और मनुष्य भी तभी तक बचा रहेगा, जब तक मनुष्यता बची रहेगी। अन्यथा स्वार्थ और लालसाओं की अंधी दौड़ में दौड़ता मनुष्य भी कुछ समय बाद खो जाएगा और पीछे रह जाएगी केवल उसकी लालसाएं। लालसाओं से भरा मनुष्य व्यक्तिगत हित और स्वार्थ के वशीभूत होकर आपदा में भी अवसर की तलाश कर लेता है। वर्तमान समय में आपदा से जूझता हर दूसरा व्यक्ति ऐसे स्वार्थ के वशीभूत लोगों से कहीं ऑक्सीजन तो कहीं आइसीयू बिस्तर तो कहीं दवाओं की पूर्ति के लिए जूझ रहा है। इतना ही नहीं, कहीं निजी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं तो कहीं सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की खस्ता हालत उन्हें लूट रही है। यह लूट यहीं तक नहीं रुकी है, बल्कि मौत तक पर लूट का बाजार गर्म है।
आपदा की इस स्थिति में आम आदमी अपने बूते जूझ रहा है, लेकिन इसके बीच में खड़ी हुई लालसाओं की मार ने उसके विश्वास को तोड़ा है। यह बेहद अफसोसनाक है कि एक ओर आपदा में जीवन को बचाने का संघर्ष चल रहा है तो दूसरी ओर केंद्र और राज्य सरकारें आपस में सामना करने की मुद्रा में दिख रही हैं और मजबूर होकर न्यायालय इस बहस की सुनवाई कर रहा है। व्यवस्था में बैठा हर शख्स जहां एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में मशगूल दिख रहा है, वहीं आम आदमी कहीं दवा के अभाव तो कहीं ऑक्सीजन की कमी से मर रहा है। आपदा से त्राहि-त्राहि करते देश के भीतर हम फिर भी कंक्रीट के महलनुमा जंगल बना रहे हैं। यह जानते हुए भी कि हमारी तबाही का एक सबसे बड़ा कारण कंक्रीट के जंगलों का बढ़ना है।
महानगर हमेशा से ही सत्ता, व्यवस्था और सुर्खियों में रहे हैं। इस कारण वे बहुत हद तक इस आपदा से लड़ पा रहे हैं। वहीं गांव इन समीकरणों से हमेशा दूर रहे हैं और केवल चुनाव के समय ही याद किए जाते रहे हैं। आज वे शहरों के मुकाबले महामारी से ज्यादा जूझ रहे हैं और डॉक्टरी सहायता से लेकर प्राथमिक उपचार तक के लिए कस्बों और राजधानी की ओर देख रहे हैं। यानी एक ओर आपदा से जूझते लोग हैं तो दूसरी ओर इस त्रासदी में अवसर की तलाश करने वाले भी हैं। आज के समय का यही कड़वा सच है। कुछ लोग मनुष्य जीवन को बचाए रखने का संघर्ष कर हैं, ताकि मनुष्यता बच सके। यह संघर्ष कितना और कब तक कारगर होगा, यह कहा नहीं जा सकता है। फिर भी आज इस मनुष्यता को बचाए रखने का प्रयास हमारे आसपास से लेकर सोशल मीडिया तक के जरिए किया जा रहा है।
इसमें शक नहीं कि सोशल मीडिया से हमें कुछ शिकायतें हैं, लेकिन यह भी पहली बार हो रहा है कि नए माध्यमों के मंच अधिक सक्रिय होकर उभरे हैं और आपदा के इस समय में मदद के लिए सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। अन्यथा इससे पहले फेसबुक, वाट्सऐप्प, ट्विटर आदि का प्रयोग व्यक्तिगत विचार और मत-मतांतरों तक केंद्रित रहा है और आम आदमी के बीच अफवाह फैलाने का का भी सक्रिय माध्यम था। लेकिन इन दिनों आपदा की स्थिति में इन माध्यमों ने व्यक्ति को न केवल जोड़ा है, बल्कि जहां मदद न पहुंच पाती, वहां भी इस माध्यम से मदद पहुंचाने का काम किया है। ये माध्यम केवल शहरों में ही सक्रिय होकर काम नहीं कर रहे, बल्कि ग्रामीण पृष्ठभूमि में भी कुछ स्तर तक सहायता समूह के रूप में काम कर रहे हैं और आपदा संबंधित उपचार, दवा, परिवहन सुविधा, स्वास्थ्य व्यवस्था की उपलब्धता और आवश्यकता संबंधी जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं। भले ही आज हम सभी अपने घरों में कैद हैं, फिर भी अधिकतर लोग इस माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हैं और सहायता के इन हाथों को थामे हुए हैं और उन्हें आगे बढ़ा भी रहे हैं।
ऐसी ही तस्वीरों से आखिर मनुष्यता के बचे रह जाने की उम्मीद बची रह जाती है। सही है कि आपदा के इस दौर में एक तबका अपनी लालसाओं के लिए अवसर तलाश रहा है और मनुष्यता को बेच रहा है, मगर इसी दौर में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो संवेदनाओं से जिंदा है, अपने भीतर से लेकर आसपास तक इंसानियत की रोशनी फैला रहा है। वह राहत सामग्री, स्वास्थ्य सुविधाएं, परिवहन, संबंधित उपचार और जानकारियां उपलब्ध करा रहा है। यहां तक कि महामारी के डर से परिजनों द्वारा छोड़ दिए गए शवों दाह-संस्कार तक करके मनुष्यता के जीवित बचे होने का प्रमाण दे रहा है। दुख, अवसाद, शोक, निराशा और लूट के इस दौर में यही वर्ग मनुष्यता के जीवित होने का अहसास करा रहा है, मनुष्य पर मनुष्य के विश्वास को बढ़ा रहा है और यही विश्वास हम सभी में आपदा की विषम परिस्थितियों में भी एकजुट होकर लड़ने की सकारात्मक ऊर्जा प्रदान कर रहा है।