अनिता वर्मा
‘दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै’। इस सूक्त वाक्य में संत कबीर ने अपनी अंतरात्मा के जाग्रत होने की बात कही थी। आज समय परिवर्तित हो गया है। दुखों का स्वरूप बदल गया है। आत्मकेंद्रित होते मानव की अनंत, अपार, असीम महत्त्वाकांक्षाओं ने दुख का स्वरूप ही बदल दिया है। भौतिक विकास की तीव्र धारा में लोगों की आत्मा का स्पंदन दब गया है। दुखों की भी श्रेणी निर्धारित हो गई है। घर, परिवार, यात्रा के दौरान, कार्यस्थल, समाजिक उत्सव, किसी से भेंट करते समय सामान्य बातचीत में विविध प्रकार के दुख उद्घाटित होने लगते हैं। संतों ने सदैव उपदेशों के माध्यम से समस्त मानव समाज को सावचेत रहते हुए सहज और सरल जीवन जीने की सीख दी है। उन्होंने बार-बार चेतावनी देते हुए संसार की क्षणभंगुरता को अपने इन उपदेशों में व्यक्त भी किया है। माया के बंधन से दूर रहने को कहते हुए कबीर ने इसे ‘माया महाठगिनी हम जानी’ कहा है। फिर भी माया-मोह के बाहुपाश से भला कौन बच पाया है।

किसी को इस बात की पीड़ा है कि उनका बच्चा जो अभी ज्ञानार्जन के लिए स्कूल में प्रविष्ट हुआ है, वह आधे अंक से दूसरे सहपाठी से कैसे पीछे रह गया! मासूम बच्चे को खेलने खाने की उम्र में प्रतिस्पर्धा की और धकेल दिया गया है। किसी के मन के कोने में ईर्ष्या भाव इतना पुष्पित-पल्लवित हो गया है कि उसे जीवन में कुछ भी सही प्रतीत नहीं होता, चाहे उसके सामने कितना ही दिल खोल कर रख दिया जाए। किसी को नहीं स्वीकारने का भाव ही द्वंद्व पैदा करता है। किसी को उसकी अच्छाई के साथ स्वीकारने के लिए सहज और सरलता मन के भीतर जरूरी है, अन्यथा जहां किसी ने सदैव दूसरों के प्रति नकारात्मकता का भाव रखने की ठान रखी है, तो भला उसे कौन समझा सकता है। सबके अपने-अपने स्तर के दुख हैं, उनकी श्रेणियां हैं, जो ऐसे मनुष्यों की अंतरात्मा के उजले स्वरूप को सामने नहीं आने देती।

किसी को यह दुख है कि दूसरो कोई अवसर कैसे मिल रहा है। उनके समक्ष किसी की प्रशंसा के दो बोल क्या बोल दिया जाए तो उनकी संचित ईर्ष्या, पीड़ा एकाएक उद्घाटित होने लगती है। बात शुरू हुई थी प्रशंसा से, पर दुखों के मारे ये लोग बात का रुख ही मोड़ देते हैं। हम जिस कार्य की प्रशंसा कर रहे होते हैं, उसे दरकिनार कर ऐसे व्यक्ति या कुछ और विषय की निरर्थक चर्चा उस समय छेड़ देते हैं और जिसकी प्रशंसा की जा रही थी, वह बेचारा फीकी-सी मुस्कान लेकर रह जाता है। कहे भी तो क्या कहे!

कुछ दिन पहले मुझे दुख का नवीन रूप देखने को मिला। एक मित्र ने नया मकान बनवाया था। उसकी सारी इच्छाएं और सपने, सब कुछ मानो उस मकान के बन जाने से पूरे हो गए थे। सब उनके मकान की डिजाइन और सुंदरता की तारीफ कर रहे थे। तभी बहुत देर से चुप बैठे एक सज्जन ने इस खुशी पर लगाम लगाते हुए कहा- ‘मेरे मामाजी के पड़ोसी ने ऐसा भव्य मकान बनवाया है कि पूछो मत।’ वे फिर उस मकान की नाप का वर्णन करने लगे। मानो वे ही वहां फीता लेकर खड़े हों। जिन मित्र के मकान की तारीफ अभी कुछ देर पहले की जा रही थी, वह प्रसंग अब पीछे रह गया था। एक क्षण के लिए भी किसी की खुशी और तारीफ भला वे कैसे बर्दाश्त करते। यही किसी को अस्वीकार का भाव उन्हें भीतर तक संतुष्टि प्रदान करता है। ऐसे लोग जब किसी को उन्नति के पायदान पर चढ़ते देखते हैं तो उनके कलेजे में सांप लोटने लगते हैं। ईर्ष्या अपना फन फैलाने लगती है और वे ऐसे सहज और सरल लोगों को भी नीचा दिखाने से नहीं चूकते जो किसी भी प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं हैं। उसकी अपनी दुनिया है।

आत्ममुग्ध लोग अपने आगे किसी को कुछ नहीं मानते और वे इतने आत्मकेंद्रित होते हैं, जिन्हें संसार में अपने अतिरिक्त कोई और अच्छा नजर आता ही नहीं है। किसी को स्वीकारना इतना आसान कहां होता है। अपनी आत्मा को सहजता, सरलता के साथ अहं मुक्त करना पड़ता है। पंचतत्त्व से बने इस शरीर के बाहर अहंकार या ‘मैं’ का भाव त्यागना जरूरी होता है। तभी स्नेह, प्रेम, करुणा और सद्भाव जाग्रत होते हैं। काम, क्रोध, अहंकार, आशा, तृष्णा, ईर्ष्या, द्वेष सब सांसारिक माया के ही अंग हैं। मनुष्य भ्रमवश इन्हीं को सब कुछ मान कर अपने लिए अनावश्यक ही दुखों की सर्जना करता है। यही उसके दुखों का मूल है दूसरों के प्रति सद्भाव और करुणा भाव सदैव ही आनंद प्रदान करता है। सबके साथ सकरात्मक रहें, खुशियां बांटें। फिर देखें कि मन में कितनी आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।

ईर्ष्या भाव आनंद को समाप्त कर देता है। मानव मन अत्यंत चंचल है। वह आसानी से कहां मानता है। हम दूसरों को स्वीकारना और समझना सीखें। जब हम सहजता से किसी को उसकी अच्छाई और बुराई के साथ स्वीकार करना सीख लेते हैं तो सभी प्रकार के अंतर्द्वंद्व से मुक्त हो जाते हैं। आज समूचा विश्व संकट के दौर से गुजर रहा है। इतिहास साक्षी रहा है कि करुणा, सद्भाव, दया, परोपकार भाव से किसी को भी जीता जा सकता है। इसलिए हम अपने अंतर्मन में स्थित प्रेम के भाव को विस्तार दें। खुद खुश रहें और दूसरों को भी खुशियां बांटे। प्रसन्न रहें, ईर्ष्या भाव मन से हटा कर चुनौतियों को स्वीकार करें। सफलता निश्चित रूप से कदम चूमेगी।