अतीत का जीवित अंश उसे वर्तमान से जोड़ता है और जब वर्तमान अतीत हो जाता है तो उस अतीत का जीवित अंश उसे भविष्य से जोड़ता है और जब भविष्य वर्तमान हो जाता है तो वह खुद-ब-खुद उसी कड़ी से जुड़ जाता है। फिर अतीत हो चुका भविष्य उसी कड़ी का हिस्सा हो जाता है। जाहिर है, अतीत कभी समाप्त नहीं होता। उसका जीवित अंश उसे आगे आने वाले समय से जोड़ता रहता है। यही जीवन की निरंतरता है। इसी निरंतरता की डोर से जीवन में सभी क्षेत्र अपनी-अपनी विधा से बंधे हुए हैं। वास्तव में कुछ भी कभी पूरी तरह खत्म नहीं होता।
आप जीवन के किसी भी क्षेत्र को लें। साहित्य, कला, खेल सभी इस निरंतरता की रेशमी डोर से बंधे हुए हैं। संगीत का मूल स्वर लय और माधुर्य ही है। भले ही किसी युग या समय का संगीत हो। परिवर्तन तो हुए हैं, पर सभी परिवर्तन युग या समय की जरूरत के मान से ही हुए हैं। तानसेन और बैजू बावरा से लेकर समय-समय पर हुए उस्ताद गायकों ने अपनी-अपनी शैली में माधुर्य घोला है। पर पुराने और नए संगीत में जो फर्क नजर आता है, वह समय की जरूरत के हिसाब से ही है।
पहले के संगीत में ठहराव था, सुकून और माधुर्य था। आज के संगीत में वह नहीं है। जिंदगी में जब इतना शोर और जोश है तो भला इस दौर में धीमी गति के संगीत की क्या बिसात? इसलिए संगीत में भी शोर है और चीख भरी ऊंचाई है। हर तरफ मोटर या मोटरसाइकल या फिर रेल और हवाईजहाज के शोर शराबे के साथ शोर वाला संगीत ही मेल खाता है। हारमोनियम, वायलिन, हल्की ध्वनि के ढोलक की जगह अब डीजे और रैपर का जमाना है। समय की मांग है, इसलिए वही परोसा जा रहा है। संगीत अगर समाज में व्याप्त शोर से अधिक शोर का न हो तो कम से कम उसकी बराबरी के शोर वाला तो हो। वरना उसे कौन सुनेगा?
यही हाल कविता का है। पहले छंद, कवित्त और दोहे में कविता लिखी जाती थी और आदिकाल से लय और गति उसकी आत्मा रही। जिंदगी में ‘स्लिमिंग’ का चलन बढ़ा तो कविता में भी ‘स्लिमिंग’ आ गई। यानी कविता छोटी से छोटी होती गई। कभी विस्तार हिंदी कविता का प्रमुख गुण था। छंद कविता के दौर में कवियों ने छंद तोड़ने का कह कर छंद को ही छोड़ दिया। ‘एब्सर्डिटी’ और ‘हाइकू’ कविता ने नए लेखक और पाठक पैदा किए। पर कविता छूटती गई। आज स्मार्टफोन और इंटरनेट के जमाने में अपनी पहली कविता लिखने वाला अपने नए संग्रह का खुद ही विमोचन करने का दुस्साहस करता है। इस बदलाव के बावजूद सभी कविताएं भीतरी तौर पर एक दूसरे से जुड़ी हैं। भले ही उनमें कुछ का स्तर संदेह के दायरे में हो। कहीं न कहीं निरंतरता का अंतर प्रवाह तो है ही।
क्रिकेट को ही लीजिए। कभी करीब सात सदी पहले इंग्लैंड में एक ग्रामीण खेल के रूप में शुरू हुए इस खेल ने कालांतर में धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की और विभिन्न अवसरों पर आए परिवर्तनों के बाद दिन में खेला जाने वाला यह खेल तेज रोशनी वाले ‘फ्लड लाइट’ में रंगीन कपड़ों और सफेद गेंद से खेला जाने लगा। आइपीएल ने इसे बाजार का प्रमुख साधन बना दिया। पर हर स्थिति में वह गेंद और बल्ले का खेल ही बना रहा। इसी में इसकी निरंतरता निहित है।
सिनेमा को देखिए। पहले मूक फिल्में बनती थीं। फिर श्वेत-श्याम फिल्में बनीं और बाद में रंगीन फिल्मों का दौर आया। तकनीक उन्नत हुई और ट्रिक फोटोग्राफी, डिजिटल प्लेटफार्म और एनिमेशन की मदद से फिल्में बनने लगीं। मुंबई या दिल्ली में बैठे-बैठे अमेरिका या इंग्लैंड की पृष्ठभूमि में फिल्में बनी हैं। पर हर युग में विभिन्न तरक्की के आयामों के बावजूद हर जमाने की फिल्म एक-दूसरे से निरंतरता की डोर में बंधी है। नाटक हो या सिनेमा दोनों ही यकीन करने की कला को संप्रेषित करने का माध्यम है। आभासी दुनिया पर यकीन कराने में कामयाब होना ही निर्माता की सफलता का द्योतक है।
नाटक और चित्रकला में भी अतीत से लेकर वर्तमान तक यही निरंतरता व्याप्त है। कला और साहित्य सतत् प्रवहमान नदी के जल के समान है जो कल-कल ध्वनि से अपने अस्तित्व का अहसास कराता है। अगर जल का प्रवाह कहीं रुक जाए तो वह प्रदूषित हो जाता है। जहां गति है, प्रवाह है और लय है, वहीं प्रगति भी है और उसी में जीवन की सार्थकता है। जड़ता, स्थिरता, एकरूपता और ठहराव प्रगति को तो रोकते ही हैं, जीवन को भी जड़ बना देते हैं।
मनुष्य हो या प्रकृति, यहां तक कि कालचक्र की पृष्ठभूमि में निरंतरता है। जो हम ज्ञान के रूप में जानते हैं, वह अतीत, परंपरा और संस्कार की देन है और सभी में एकजुटता का प्रवाह निरंतर गतिमान है। यह प्रवाह कभी अवरुद्ध न हो और गति बनी रहे, यही सौंदर्यबोध है। किसी ने क्या खूब कहा है ‘आजादी ये कैसी, जिसने तनहा कर दिया हमको, जो सबको बांध कर रखती थी, वह जंजीर अच्छी थी’। संचय में जो शक्ति है, वह भला बिखरने में कहां? ऊपरी तौर पर भले ही सभी एक-दूसरे से भिन्न लगते हों, पर अंदरुनी या रूहानी तौर पर सभी अदृश्य डोर से बंधे हुए ही हैं।