निर्मल रानी

भारत निरंतर वायु प्रदूषण की चपेट में रहने वाले देशों की सूची में शामिल हो चुका है। खासकर दिल्ली और उसके आसपास का क्षेत्र तो लगभग पूरे वर्ष वायु प्रदूषण की चपेट में रहने लगा है। किसी बाहरी देश से दिल्ली में आते ही ऐसा महसूस होता है, जैसे किसी दमघोंटू माहौल में प्रवेश कर चुके हैं। पिछले तीन दशक से एनसीआर में फैले इस प्रदूषण के लिए आंख मूंद कर हरियाणा, पंजाब के किसानों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता रहा है। कहा जाता है कि फसल काटने के बाद खेतों में बची पराली को जलाने से दिल्ली परिक्षेत्र में प्रदूषण फैलता है।

केंद्र सरकार ने भी पहले यही दावा किया था कि वायु प्रदूषण बढ़ाने में पराली का योगदान पच्चीस से तीस प्रतिशत है। पर पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में इसी संबंध में एक सुनवाई के दौरान उसने माना कि प्रदूषण फैलाने में पराली का योगदान मात्र दस प्रतिशत है। पर अपने लिखित हलफनामे में उसने दावा किया कि प्रदूषण में पराली का योगदान मात्र चार फीसद है। देश की सर्वोच्च अदालत केंद्र के शपथ-पत्र के अनुसार यह भी कह चुकी है कि पचहत्तर प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए उद्योग, धूल तथा परिवहन मुख्य कारण हैं।

जहां तक किसानों को प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रश्न है, तो इसे यों भी समझा जा सकता है कि किसान अपनी फसल का अवशेष यानी पराली आदि तो वर्ष में एक-दो बार जलाते हैं, जबकि दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र लगभग पूरे वर्ष, चौबीसों घंटे प्रदूषण की गिरफ्त में रहता है। दिल्ली, फरीदाबाद, गुरुग्राम, नोएडा, गाजियाबाद, सोनीपत आदि राजधानी के किसी भी निकटवर्ती क्षेत्र में चले जाइए, हर जगह वही दमघोंटू माहौल नजर आता है। लोग अपने मकानों के दरवाजे और खिड़कियां इसलिए खोलते हैं कि ताजा और स्वच्छ हवा आ सके, पर एनसीआर की स्थिति ठीक इसके विपरीत हो चुकी है। घरों के दरवाजे और खिड़कियां खुलते ही प्रदूषित हवा घरों में प्रवेश कर जाती है।

इन इलाकों में लाखों वाहन चौबीसों घंटे सड़कों पर दौड़ते हैं। हजारों छोटे-बड़े उद्योग अपनी चिमनियों से धुआं उगलते हैं। एनसीआर क्षेत्र में बसने वाले लाखों कबाड़ी सारा दिन और प्राय: रात भर लोहे-तांबे-पीतल के तार आदि निकालने के लिए टायरों तथा बिजली के तारों आदि में आग लगाते रहते हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत घरों से कूड़ा संग्रह करने की योजना के बावजूद अब भी अनेक लोग, यहां तक कि प्राय: स्वयं सफाईकर्मी भी कूड़े की ढेरियां बना कर उसे आग के हवाले कर देते हैं। एनसीआर क्षेत्र में पड़ने वाले ईंट के भट्टे भी यहां का प्रदूषण बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
हर दिन दिल्ली और हिंडन एयरबेस से संचालित हजारों विमानों द्वारा दिन-रात फैलाए जाने वाले जहरीले प्रदूषण की कोई चर्चा नहीं होती।

अति विशिष्ट तथा विशिष्ट व्यक्तियों के काफिले में आगे-पीछे दौड़ने वाले वाहनों के प्रदूषण फैलाने का जिक्र कहीं नहीं सुनाई देता। मानो उनसे प्रदूषण नहीं, बल्कि सुगंधित स्वच्छ आक्सीजन का छिड़काव होता हो। प्रतिदिन लाखों नए वाहन सड़कों पर उतर कर प्रदूषण नहीं फैलाते, बल्कि किसानों के दस वर्ष पुराने गिनती के ट्रैक्टर प्रदूषण फैलाने के असली जिम्मेदार हैं! पिछले दिनों देश के इतिहास में पहली बार दिल्ली को केवल वायु प्रदूषण के चलते लाकडाउन यानी बंदी का सामना करना पड़ा। सभी स्कूल-कालेज बंद कर दिए गए थे।

दिल्ली सरकार का सुझाव था कि दिल्ली में सप्ताह में दो दिन प्रदूषण लाकडाउन लगाया जा सकता है। पर अदालत का मत था कि अकेले दिल्ली को ही बंद करने से कोई लाभ नहीं होगा। यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। एक बड़े इलाके को बिना किसी ठोस वजह के बंद नहीं किया जा सकता। इसलिए सरकारों को बंदी के अलावा कुछ वैकल्पिक उपायों पर भी सोचना होगा।

मानव जनित प्रदूषण ने ही आज दिल्ली परिक्षेत्र की यह स्थिति कर दी है कि लोग कार पूल पर विचार करने लगे हैं। सरकार को इस स्थिति से निपटने के लिए कभी-कभी वाहनों पर सम-विषम की नीति लागू करनी पड़ती है। कोरोना से बचाव के लिए लगाया जाने वाला मास्क लगता है, प्रदूषण के चलते अब इंसानी जरूरत बनने वाला है। सांस संबंधी बीमारियों में इजाफा होता जा रहा है।

छोटे बच्चे और बुजुर्ग इसकी चपेट में कुछ ज्यादा ही आ रहे हैं। निरंतर बढ़ते जा रहे शहरीकरण के चलते हरित क्षेत्र घटता जा रहा है, जोकि मानव जीवन के लिए आक्सीजन देने और कार्बन सोखने का सबसे प्रमुख स्रोत है। बहरहाल, पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में इस विषय पर हुई बहस और सरकार द्वारा रखे गए पक्ष के बाद किसानों को दिल्ली परिक्षेत्र का प्रदूषण बढ़ाने का जिम्मेदार ठहराने की साजिश का पटाक्षेप जरूर हो गया है। पर अब यह सवाल और प्रगाढ़ हो चुका है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र वायु प्रदूषण की स्थायी चादर लपेट चुका है।