मकान खाली थे। खाली तमाम जगहें। कमरे खाली थे। कमरों में बिस्तर लगे थे। बिस्तर पर सामान रखे हुए थे। सामान भी वे, जिन्हें कहीं और जगह नहीं मिली थी। घर इतना बड़ा और कमरे भी बड़े-बड़े, खाली-खाली। कभी इन कमरों में लोग रहते थे। उनमें शामिल थे बेटे, बेटियां। अंतर सिर्फ इतना था कि अब इन कमरों में कोई रहता है तो वे हैं यादें। ताजी और टटकीं। बाबूजी कहते हैं कि वह यहीं इसी कमरे में रहता था। स्कूल से या खेल कर लौटता था तो इसी कमरे में सामान फेंक कर बिस्तर पर लेट जाता था। बेटियां भी रहती थीं। अब ये कमरे खाली हैं। हालांकि वे लोग बुलाने पर भी अब नहीं आते। कहते हैं, आपलोग ही आ जाइए हमारे पास… वहां सुविधा नहीं है… कैसे रहेगी आपकी बहू! कैसे रहेगा आपका पोता। उसे हवा-पानी से भी एलर्जी हो जाती है। बच्चे को धूल से भी तो एलर्जी हो जाती है। सो, तय हुआ अब से पूरी सर्दी आप दोनों हमारे पास आ जाया करिए। गरमी में भाई के पास।
जब कभी जाना हो अपने घर और अपने शहर, तो जरा इन खाली कमरों को जरूर देखने का अवसर निकालिएगा। वहां उन अंधेरे कमरों में भी जाने की कोशिश कीजिएगा, जहां आप कभी उठा-बैठा करते थे। जिन जगहों पर बैठने के लिए आपस में लड़ाई होती थी, उन पर अब चूहों-बिल्लियों की धमा-चौकड़ी दिखेगी। कोई नहीं बैठता अब आपके बैठकखाने में। कोई बैठा मिलेगा तो बस पुरानी यादें। इन्हीं यादों को संजोए बैठे मिलेंगे हमारे मां-बाप, जो तमाम कमरों को बंद कर एक-दो कमरों में सिमट कर रह गए हैं। क्या करेंगे सारे कमरे खोल कर। कमरे खुलेंगे तो यादें बाहर झांकने लगेंगी। बाहर की हवाओं और धूल से कमरे गंदे होंगे। तब कौन साफ-सफाई करेगा। जहां मां-पिता रहते हैं, उन्हें ही साफ करना उनसे नहीं बनता। बिस्तर पर ही पिछली यात्रा के बैग, सामान पड़े हैं। उन्हें तो रखा नहीं जा सका। खाली कमरों को कौन दुरुस्त करे! इन सूनी आंखों और खाली कमरों को न तो देखने वाला कोई है और न संभालने वाला।
यों ही, कभी जाना हो घर तो देख सकते हैं कि छत भी जगह-जगह से पलस्तर छोड़ रहे हैं। जिन पंखों के नीचे पूरा घर सोने के लिए मारा-मारी करता था, अब भी बंद पड़े हैं। मां-पिता से पूछ लिया कि यह क्यों बंद है… लालटेन क्यों खराब है… या फिर बिजली का मीटर ठीक क्यों नहीं है… तो जवाब मिलेगा, अब हमसे नहीं बनता। उम्र सत्तर-अस्सी पार है। अपने लिए खाना-पानी, दवा सेवा करें कि इन्हें देखें। कौन सुनेगा? कोई नहीं सुनता। कई बार बिजली ऑफिस, बैंक का चक्कर काट आए हैं, मगर रोज नया बहाना बना देते हैं आज के मैनेजर। तुम्हारे पिता की स्मृतियां भी तो ऐसी ही हो चली हैं! इन्हें संभालें कि खाली घरों को! पैसे लेकर जाते हैं बाजार, और पैसे कहां किसे दे आते हैं या गिरा देते हैं! पूछो कि सामान कहां है तो बच्चों-सा मुंह बना लेते हैं। लगता है, पैसे तो दिए थे, लेकिन सामान वहीं छूट गया शायद! कहते-कहते मां की बेबसी छलकने लगती है।
तुम लोगों के पास वक्त कहां है! कोई भी तो नहीं आता। मोहल्ले वाले, आस-पड़ोस वाले, नाते रिश्तेदार… सबके सब पूछते हैं कि फलां को तो आए जमाना हो गया। बेटी भी पिछले कई सालों से नहीं आई। कोई नहीं आने वाला। इतना पढ़ाया ही क्यों इन्हें? नहीं पढ़ाते तो कम से कम आपके पास रहते… आदि। ऐसे तर्कों, कुतर्कों से मां-पिता के कान पक चुके हैं। वे भी कई मर्तबा अपने आपको समझा चुके हैं कि बच्चे व्यस्त हैं। सबके सब अपने ऑफिस और बच्चे में उलझे हुए हैं। लेकिन कभी तो कान में इन बातों का असर तो पड़ता ही है! खाली कमरों, सूनी आंखों की संख्या लंबी है। हर शहर, हर कस्बे में ऐसी कहानी आम मिलेगी। शहर छोटा हो या बड़ा। लेकिन बच्चों का विस्थापन बतौर जारी है। शहर और कस्बे इस विस्थापन से गुजर रहे हैं। शहरों में विकास और निर्माण कार्य देखे जा सकते हैं। पुरानी दुकानें, घर तोड़ कर पुनर्नवा किया जा रहा है। इन्हीं बनते, टूटते शहर में कुछ कमरे अभी भी हैं, जहां कोई रहने नहीं आता। कोई इनका हाल जानने नहीं आता। अगर किसी दिन मां-बाप में से कोई भी एक गया, फिर बच्चे भागे-भागे आएंगे। यह मेरा कमरा, वहां तेरा कमरा। घर को दो फांक किया जाए। और औने-पौने दामों में घर को बेचने का सिलसिला निकल पड़ता है। याद आता है कभी पड़ोस के चाचा ने अपना घर बेचा। बेच कर सारी रकम बेटे को सौंप दी। अब आलम यह है कि बीच में कुछ कहानियां बनीं और वापस उसी शहर में आना हुआ। लोगों ने देखा। बातें बनार्इं और कहानी फिर चल पड़ी। यह एक ऐसी कहानी थी, जिसे सुन कर आंखों में किसी को भी लोर (आंसू) भर आए। लेकिन क्या करें, जब होनी को होनी थी और हुई भी। उम्र नब्बे साल। पत्नी की उम्र अस्सी साल। अब दोनों उसी शहर में किराए पर रहते हैं।