मेधा

अशोक, नीम, सप्तपर्णी, गुलमोहर- सारे ही वृक्ष नृत्यरत होते हैं। उनके पत्तों के झूमर पड़ने से एक अलग किस्म का संगीत उत्पन्न होता है। आसमान से बूंदें उतरती रहती हैं और धरती को सोंधा करती हैं। छज्जे से टापर-टुपर की आवाज जिंदगी की बेहद पहचानी-सी धुन है। यही धुन तो बचपन से लेकर आज तक बदली नहीं है। अचानक ही यह गीत होठों पर तैर जाता है- ‘बृष्टि पड़े टापर-टुपर…’। पेड़ों की डालियां आगे बढ़-बढ़ कर मानो मेरी बाहें पकड़ मुझे अपने साथ झूमने का न्योता देती हैं। रह-रह कर शीतल बयार का प्यार आत्मा को तृप्त करता रहता है। अपने पीछे के लैम्प-पोस्ट की आभा में झिलमिलाता सप्तपर्णी किसी स्वप्नद्रष्टा दार्शनिक की मुस्कान लगती है। अंधेरे की ओट लिए धरती की एक झलक को व्याकुल आसमान पर रहम कर बिजली बार-बार धरती का दीदार करवाती है। रह-रह कर गरजते बादल जैसे मुनादी करते हों कि प्रकृति का यह सारा लाव-लश्कर मेरे ही दम से है। छज्जे पर बनती बूंदों की झालर रात का शृंगार करती हैैं।

जीवन-रस में डूबे मेरे मन को सहसा खयाल आया कि गांव में बूंदों की गति और मोटाई के अनुसार बारिश को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था। जहां तक मुझे याद पड़ता है, वे सारे नाम बहुत ही मजेदार होते थे। उनकी ध्वनि में एक तरह का सुरीला खिलंदड़पन था। पतली और कमसिन-सी बूंदों वाली बारिश को दादी कहती थीं ‘झिसी-फुसी’ पड़ रहा है। जाने क्यों लग रहा, अभी दौड़ कर गांव जाऊं और सारे नाम पता कर वैसी ही बूंदों को खोजने निकल जाऊं। ऐसा लग रहा है जैसे बारिश, बादल, गांव, बचपन, दादी- सब इस एक क्षण में एक साथ साकार हो रहे हैं। यह जो क्षण है, यही सच है।

सावन के हरियाए मन ने हृदय से सूखे सारे रंगों को देशनिकाला दे दिया है। गांव के पीपल-बाबा की मजबूत डालियों पर लगे झूलों पर पेंग भरता बचपन यहां तक आ पहुंचा है। दरअसल, सावन का महीना मुझे बारहों महीनों में सबसे अलग लगता है। उम्मीद की हरियाली से सजी धरती, बाहर-भीतर के मैल को धोकर मन और तन को निर्मल करते बादल। दूर बसे साजन के संदेश सुनाते बादल। हां, वह पिया जो हृदय के सात पर्दों के पार बसा है… जो कभी-कभार झलक दिखा कर छिप जाता है। फिर सदियों का इंतजार दे जाता है। वह निष्ठुर, निर्मम पिया, जिस तक अतल हृदय की गहराई से उठती पुकार भी नहीं पहुंच पाती, वैसे रूखे पिया को भी सावन के नीर निर्मल कर देते हैं। इस मौसम में बाहर जितना बादल बरसता है, भीतर विरह की अग्नि उतनी भड़क उठती है।

इसीलिए विभिन्न परंपराओं के ‘बारहमासा’ में सावन का बहुत महातम्य है। बुल्ले शाह ने यों ही नहीं लिखा- ‘सावन सोहे मेघला घट सोहे करतार/ ठौर-ठौर इनायत बसे पपीहा करे पुकार।’ सभी सूफी संतों के यहां ‘बारहमासा’ का बहुत महत्त्व है और इसमें बारिश के माह का और खासतौर पर सावन का। जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ में विरह का सौंदर्य अपनी पराकाष्ठा पर कतई नहीं होता अगर उसमें रत्नसेन की पहली पत्नी नागमति के वियोग खंड में बारहमासा के अंतर्गत सावन माह में नागमति की विरह-वेदना की मार्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति जायसी ने न की होती। प्रकृति की उत्सवधर्मिता, उसका सौंदर्य विरह की ज्वाला को तीव्र से तीव्रतर कर देता है।

अपनी सोच में डूबती-उतराती मैं तब जाकर चेतन हुई जब हाल में बादलों की एक पुकार ने मेरा ध्यान खींचा। कालिदास ने ‘मेघदूत’ में जिन बादलों के चित्र रचे हैं, वे भी तो इसी आसमान से उपजे होंगे। सहसा मन रोमांचित हो उठा कि आह… मैं वही आसमान देख रही हूं, जिसे निरखते हुए कालिदास ने ‘मेघदूत’ लिखा था। ‘मेघदूत’ की स्मृति में डूबे नयन देख रहे हैं… सावन के महीने में हर तरफ प्रकृति की इनायत बरस रही है। ऐसे में ‘पी’ से मिलन की चाह भी बढ़ जाती है। वह ‘पी’, जो पति हो सकता है, प्रेमी, गुरु या वह भी जो सब प्रेमियों का प्रेमी और सब गुरुओं का गुरु है।

कालिदास नहीं हैं। जायसी भी नहीं हैं और बुल्ले शाह भी नहीं हैं। लेकिन आसमान अब भी अपनी जगह टंगा है। ‘मेघदूत’ भी है। जायसी का ‘पद्मावत’ है और बुल्लेशाह का ‘बारहमासा’ भी है। यानी शब्द शाश्वत है। शाश्वत शब्द में ही मनुष्य भी अपनी जगह बना लेता है। ‘मेघदूत’ से कालिदास जीवित हैं। ‘पद्मावत’ से जायसी।

कितना अद्भुत है यह सोच पाना कि धरती के जिस टुकड़े पर बैठ मैं बारिश के सौंदर्य-रस का पान कर रही हूं, हजारों साल पहले धरती के इसी टुकड़े पर किसी ने ऐसे ही आनंद लिया होगा… तब मैं नहीं थी। हजारों साल बाद भी यहीं बैठ कोई फिर से बादल-राग सुनेगा, तब भी मैं नहीं होऊंगी। क्या पता तब भी मैं थी और हजार साल बाद भी मैं होऊं! आखिर शाश्वत होने से कोई तो रिश्ता होगा नश्वर मनुष्य का। चाहे जो हो, लेकिन इतना तो तय है कि बादल जरूर उपजेंगे, तब भी इसी आसमान से!