कानन झींगन

देश भूकम्प से कांप उठे, बाढ़ में डूबने लगे, दंगों में बेहाल हो जाए, बोरवेल में कोई बच्चा गिर जाए, सीमा पर दुश्मन ललकारे या फिर संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में जाने का अवसर हो, हमारी सेना के जवान हरफन मौला बन कर तत्पर हो जाते हैं। कभी जलती रेत में, कड़कती धूप और गर्म हवाओं का सामना करते हैं और कभी पहाड़ों पर हड्डियों को जमा देने वाली बर्फीली ठंड को झेलते हैं- बिना सवाल किए, बिना ना-नुकर किए।
आमतौर पर देशवासी इन जवानों का अभिनंदन करते हैं। सन 1965 की लड़ाई में ट्रकों पर पूरी वर्दी में जब सैनिक मोर्चों पर जा रहे होते थे तो जनता जय-जयकार करती हुई छाछ, फल, मिठाई के झोले भर-भर कर ट्रकों के पीछे भागते हुए, अपनी श्रद्धा के प्रतीकस्वरूप यह सामग्री उन्हें थमाती जाती थी। निस्संदेह जवानों का सीना उस समय जरूर चौड़ा हो जाता था। जब-जब देश को जरूरत होती है- एक आह्वान पर छुट्टी पर गए हुए सैनिक तुरंत परिवार से विदा लेकर जैसे भी संभव हो मोर्चे पर पहुंच जाते हैं।

घरों से दूर निकल आए इन सैनिकों को आधार मिलता है सेना के परिसर में स्थापित मंदिरों से। पल-पल में सलामी लेते और देते समय इनके होंठों पर ‘राम-राम साब’ की धुन-सी सुनाई पड़ती है। पिछले दिनों अवकाश-प्राप्त सैनिक अधिकारियों के पुनर्मिलन के अवसर पर यह सब फिर से देखने को मिला। बटालियन के अन्य स्थान पर जाने के आदेश आ चुके थे। मंदिर में हवन-पूजा आदि का आयोजन था। सभी जवान सुखासन में पंक्तिबद्ध बैठे थे। अफसरों में सभी धर्मों की मिली-जुली भागीदारी थी।

धर्मनिरपेक्षता व्यावहारिक रूप में देखनी हो तो सेना उसका सजीव उदाहरण है। सेना के मंदिर स्थावर नहीं, जंगम होते हैं। सेना की चलायमान प्रकृति और जीवन-शैली के अनुरूप मंदिर भी उनके साथ-साथ चलते हैं। ‘लॉग, स्टॉक और बैरल’ के साथ विशेष रूप से नियोजित रोलिंग स्टॉक (रेलगाड़ी) में जब बटालियन अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है तो एक वैगन में मंदिर भी अपने साजो-सामान के साथ विराजता है। सफर में अस्थायी रूप से कामचलाऊ ‘मिनी मंदिर’ सज जाता है। मंजिल पर पहुंच कर फिर नए वातावरण, नई जगह में नियत स्थान पर पूरी सज-धज के साथ स्थापित हो जाता है।

रविवार की सुबह ‘आज मंदिर है’ के आदेश का पालन होता है। सभी अफसर और सैनिक साप्ताहिक पूजा में शामिल होते हैं। जीवन की अनिश्चितता का अनुभव सेना की गतिविधियों में बड़ी गहराई से किया जा सकता है। सपरिवार रात के भोजन में वे लोग मस्त होते हैं कि अचानक ‘मूव’ के आदेश आ जाते हैं। उसी रात परिवार घर की राह लेता है और जवान के साथ-साथ अफसर भी अपनी राह। फिर चाहे जवानों को सीमा पर ले जाने वाला रोलिंग स्टाक (रेलगाड़ी) पंद्रह दिन स्टेशन पर ही खड़ा रहे। रास्ता साफ होने का आदेश मिलने पर ही गाड़ी अपनी निश्चित राह पर आगे बढ़ सकती है। कब सीमा पर शहीद हो जाएंगे, कब आतंकवादियों का निशाना बन जाएंगे, कोई ठिकाना नहीं। जान हथेली पर लिए ये लोग ‘क्यों-क्या’ से परे हैं। इनकी पत्नियां भी उसी त्याग और लगन से बच्चों का पालन करती हैं। व्रत-उपवास करती हैं। असुरक्षा की भावना से उबारती है यही आस्था!

हाल ही में देश में तमाम लोग हनुमनथप्पा की प्राण-रक्षा के लिए सामूहिक प्रार्थनाएं कर रहे थे। उन्नीस हजार छह सौ फुट की ऊंचाई पर सेना की एक टुकड़ी सीमा सुरक्षा के लिए तैनात थी। अचानक हिमस्खलन से दस जवान बर्फ में दब गए। बचाव-कार्य में लगे कई जवान वहां जुट गए। उनके लिए भी वही खतरा था। बर्फ ठोस सीमेंट में बदल चुकी थी। शिकारी कुत्तों की सहायता से केवल एक सैनिक को छह दिन बाद निकाला जा सका। वह भी अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहा।

उसको बचाने के लिए अनेक लोग अपने अंगदान करने को आतुर थे। उतनी ऊंचाई पर जवानों को तीन महीने रहना होता है। कई बार उनकी बगलों का पसीना तक बर्फ बन जाता है। पैरों की अंगुलियां गलने लगती हैं। ऐसी परिस्थितियों में भी सेना अपने काम में मुस्तैद रहती है, कोताही करने का खयाल तक नहीं आता।

मेरा मन उनके लिए संवेदना से उमड़ पड़ता है। आखिर क्यों सभी देश अपनी-अपनी सीमा में संतुष्ट नहीं रह पाते? कितने जीवन, कितने साधन सीमा-सुरक्षा में तबाह हो जाते हैं। देश के निर्माण और उन्नति में इन सारी जानों और संसाधनों को लगाया जा सकता। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना के नियम तोड़ने वाले देशों पर नियंत्रण रख कितना खून-खराबा बच सकता है।