सुनील मिश्र
फिलहाल जिस संकट का दौर चल रहा है, उसमें सर्जनात्मकता का आखिर थमा रह पाना मुश्किल हो गया था। ऐसे समय में संचार और तकनीक के जितने भी संसाधनों- कम्प्यूटर और मोबाइल के साथ आकर चुपचाप बैठ जाने और फिर जाग कर चमत्कृत करने वाले ऐप के माध्यम से सबसे जुड़ना और अपनी बात कहना आसान हुआ तो एक सिलसिला ही चल निकला। मुंबई में गायक कलाकारों ने इस अवसर को सबसे पहले प्राप्त किया और सीख लिया।
फिर यही हुआ कि अगल-बगल घर होने के बाद भी मिलने का जरिया इंस्टाग्राम, फेसबुक, जूम और दूसरे माध्यम बने। एक तरफ आपसी मित्रों का पहले के भी दिनों में उतना मिलना न हो पाता था, लेकिन आजकल इस तरह जुड़ने पर बातचीत, गाना-बजाना, हंसी-ठिठोली और मनोरंजन सबकी गुंजाइश बन गई। कुछ लोगों ने इसके माध्यम से कवि, कलाकार और संस्कृतिकर्मियों को जोड़ कर संवाद की स्थितियां निर्मित कीं, जो इन दिनों खूब पसंद की जा रही हैं। यही कारण है कि विचार, कविता और कहानी पाठ, सृजनात्मक प्रक्रिया पर बातचीत और जीवन-यात्रा के अनुभवों को साझा करने का खूब सिलसिला चल पड़ा है।
दरअसल, लोग अपने-अपने हिसाब से अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्त करने का रास्ता इस विवश घर-घुस्सू समय में निकाल रहे हैं। आमतौर पर लड़ाई-झगड़ों के प्रकरणों में घर में घुस जाने, घर में घुस कर बैठने और घर से बाहर निकलने की चुनौतियां देने वाली घटनाएं कम न होंगी, लेकिन यहां शत्रु इतना अदृश्य है कि किसी भी किस्म की आहट, ‘जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं’। लोग सजग और सहमे हुए हैं। कार में एसी न चलाएं, फ्रिज और बर्फ का प्रयोग करें कि न करें, भूल कर भी सामान्य किस्म की भी खांसी या जुकाम न हो, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे। हर आदमी ऐसे जोखिम से बच रहा है। सुरक्षित दूरी की व्याख्याएं हर दिन नई जानकारी के साथ सामने आती हैं, जैसे किसी ऐप में बदलाव किया जाता है, बिना बात के हर एक-दो दिन में।
बहरहाल, शून्य और सन्नाटे के समय में जिस तरह की रचनात्मकता और गतिविधियां सामने आ रही हैं, वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस पूरे वातावरण को कला, साहित्य, संस्कृति और सिनेमा से जुड़े लोगों ने बहुत उत्साह और तेजी के साथ जनहित के पक्ष में सदुपयोग किया है। ऐसे लोग लगातार संदेश सोचते हैं, नारे, गीत सोचते हैं, एकल अभिनय और गायन-वादन-नृत्य की अभिव्यक्ति के अभिप्राय ढूंढ़ते हैं, लेकिन दूर-दूर से हम तक, हमारे मोबाइल तक सकारात्मक और रचनात्मक विचार दृश्यों, विचारों, छवियों और सांस्कृतिक उपक्रमों में फलीभूत होकर आ रहा है, वह गौर से देखने लायक है। इस बात पर विचार होना चाहिए कि रचनात्मक अभिरुचि और संसार के लोग इस कठिन समय को सहने योग्य बनाने के लिए अपनी किस तरह की भूमिका का निर्वाह भी कर रहे हैं।
हम सबके बीच एक बार फिर से व्यंजन, पकवान, भोजन बनाने के अलावा बीती स्मृतियों को ताजा करने का समय है। कैसे भरपूर स्वागत के साथ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे धारावाहिक हमारे बीच में आए। कैसे ‘यह जो है जिंदगी’, ‘नुक्कड़’ और दूसरे धारावाहिकों के पुनर्प्रसारण की जमीन बनी। इसी प्रकार पुरानी फिल्मों के भी पुनरावलोकन का समय आया। इसमें एक ओर वे फिल्में हम ढूंढ़ कर देखने चले जो हम प्रदर्शनकाल में नहीं देख पाए थे। वे फिल्में देखने चले, जो बहुत पुरानी हो गई थीं, मगर हमारे जहन में थीं। उन फिल्मों को तलाश करना शुरू किया, जिन्हें देखने का सुझाव कभी हमें दिया गया होगा और हम उसे मान नहीं पाए या मौका नहीं मिल पाया।
रचनात्मक आयामों में अब तक कितना काम हो गया है कि हमको शायद ऐसे पता न चलता, क्योंकि हमारे पास इतना वक्त ही कभी न रहा कि हम आयामों में जाते, जिज्ञासा को बलवती करते। सब कुछ बंदी के दौर में अखबार हमारे घर आ रहा है, इस बात के लिए ही अखबार के शीर्ष से लेकर हॉकर तक एक-एक को सलाम करना चाहिए। अन्यथा जिस तरह से बाजार बंद होने से हम पत्रिकाओं के लिए तरस गए, उनकी खुशबू से वंचित हो गए, यह कम क्षति नहीं है। बच्चों और बड़ों की पत्रिकाएं वैसे भी सीमित रह गई हैं, लेकिन वे भी परिदृश्य से ओझल हो जाएं तो कैसा महसूस होगा
सिनेमाघर जाकर सिनेमा देखने से वंचित दर्शकों के लिए अमेजॉन, नेटफ्लिक्स ने निर्माताओं से फिल्में खरीद कर हर घर के टेलीविजन तक उसकी पहुंच का एक सेतु बना ही दिया है। गनीमत है कि रचनात्मकता, सृजनशीलता ने विकल्प खोजे और बहुत सारी चीजें शुरू हुईं। हमारे सामने एक बार फिर तमाम सीमाओं के बावजूद अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर अपनी पसंद के अवसर देखने और उनका साक्षी होने का अवसर बन चला है। कुछ समय बाद जब एक बाद जिंदगी फिर पटरी पर लौटेगी, चेतना फिर ढर्रे पर आएगी। लेकिन यह समय, इसमें रचनात्मक सक्रियता और दिन-रात का आपस में हमें उलझाए रखने का यह अलग व्यस्तता भरा आयाम हमारे बीच संवेदनशील स्मृतियों की तरह बना रहेगा।