सुरेशचंद्र रोहरा
होश संभालने के बाद से जितना याद है, उसके मुताबिक जहां मेरा जन्म हुआ, वह स्थान आज गांव से कस्बा, फिर नगर और एक औद्योगिक नगर बन चुका है। जहां गांव की रमणीयता, हरियाली, खेत और हरे-भरे माहौल में चहचहाते पक्षी मेरे जीवन का हिस्सा था, वहां इसकी शक्ल बदलने के बाद से मैंने वह देखे या महसूस ही नहीं किए। अक्सर ऐसा लगता है कि जैसे अब यह मेरा शहर है चिमनियों का, कोयला खदानों से परिपूर्ण, धुआं उगलता। लगभग वैसा ही परिदृश्य समूचे छत्तीसगढ़ का होगा। विकास जो भी देता है, मगर उसके बदले जो कुछ छीन लेता है, उसकी मार बहुत गहरी होती है।
बहरहाल, विकास अपने रास्ते मेरे गांव भी पहुंचा था, जिसकी वजह से अब यह शहर बन कर जिला बन गया है। इसे राज्य का औद्योगिक तीर्थ कहा जाने लगा है। देश का विद्युत हब बनने की ओर अग्रसर है। जिधर दृष्टि जाती है, ऊंची-ऊंची विशालकाय चिमनियां धुआं उगलती दिखती हैं। सब ओर औद्योगिक माहौल। सड़कों पर निकलने पर शरीद धूल-धक्कड़ और चेहरा कालिमा से पुत जाता है। मैं अपने ऐसे ही शहर में अब रच-बस गया हूं। जिन सीमाओं में रहना हुआ, उसमें यह कल्पना नहीं की कि इससे इतर परिदृश्य और जीवन संभव है। मगर इस बीच एक नवीन अनुभव से गुजरा और मन मयूर आह्लादित हो उठा।
शहर से मात्र पचास किलोमीटर की दूरी पर एक दूसरा जिला अवस्थित है। मेरा इस बीच दो महीने लगातार अनेक गांव में जाना हुआ। चांपा हो या जांजगीर, यह शहर तो हमारे शहर से मिलते-जुलते ही शहर हैं। मगर जब जरा भीतर जाना हुआ तो एक नए अनुभव से दो-चार हुआ। सबसे खास बात यह कि हरेक गांव में पंद्रह से बीस तालाब और बावड़ियां है। मैं अचंभित था। हमारे शहर में एक भी तालाब नहीं बचा है और यहां हर थोड़ी दूर पर तालाब। बच्चे, महिलाएं, पुरुष उल्लसित नहा रहे थे, मवेशी पानी पी रहे थे, कमल-दल खिले हुए थे। चारों और स्वच्छ वातावरण हरियाली से भरा हुआ था।
हमारे शहर में मैंने रामसागर, मोती सागर, राधा सागर सहित जितने भी तलाब स्थल देखे, वे या तो लगभग पट चुके हैं या फिर कीचड़ गंदगी का पर्याय बन गए हैं, जिनका आज कोई इस्तेमाल नहीं करता। याद आया कि जब मैं छोटा था, तब घर के पास मोती सागर तालाब हुआ करता था। वहां मुझे दादी अपने साथ ले गई थी और मुझे नहलाया गया था। दादी अक्सर कपड़े धोने जाती। महिलाएं संध्या वंदन करतीं, दीप जलातीं।
आज वह तालाब सूखा पड़ा है। यह भी पता चला कि वह बिक चुका है। कहीं खबर पढ़ा था कि सबसे ऊपर से आदेश आया है कि तालाब नहीं बेचे जा सकते। मगर मोती सागर को किसने बेच दिया और आज यह किसकी निजी संपत्ति हो चुकी है! अब आने वाले दिनों में वहां क्या दिखेगा? क्या वह देख कर मुझे हैरान होना चाहिए? इसी तरह अमरैय्या पारा में दो तालाब थे। आज दोनों का अस्तित्व खत्म हो चुका है। शहर में एक भी तालाब नहीं है।
कुछ वर्ष पूर्व मुड़ापार तालाब के सौंदर्यीकरण का कार्य प्रारंभ हुआ। चारो ओर खंभे लग गए, करोड़ों खर्च हुए। सुना कि यह आदर्श तालाब स्थल बनेगा, जहां लोग घूमने आया करेंगे। लंबी-चौड़ी योजना की घोषणा के बावजूद मुड़ापार तालाब का जीर्णोद्धार नहीं हो सका है। दो वर्ष पूर्व राज्य सरकार ने तालाबों की सफाई की योजना का क्रियान्वयन शुरू किया। सरकार के साथ कई समाजसेवी संगठन जाग उठे। राधासागर तालाब को गोद ले लिया गया। मगर आज उसकी स्थिति भी बदतर है ।
मगर पड़ोसी जिला चांपा जांजगीर में स्थिति एकदम उलट है। हरेक गांव में एक या एक से ज्यादा तालाब हैं। पानी की कोई कमी नहीं। कोयल, मैना, नीलकंठ, पपीहे आदि चिड़ियां चहचहा रही हैं। चारों ओर हरी-भरी प्रकृति मानो उल्लासमय जीवन का प्रतीक है। लहलहाते खेत धान की हरी-हरी दूब खिली, हंसती हुई मुझ जैसों को जीवन का संगीत सुना रही है। मैंने एक बात और महसूस की।
मेरे शहर और आसपास अब गौरैया, कोयल, मैना, नीलकंठ आदि पक्षी दिखते भी नहीं है। मगर यहां कोयल की मीठी तान सुनने को मिली। नीलकंठ उड़ते दिख गए। हृदय को असीम सुख मिला। हरी-भरी प्रकृति में अनेक पक्षी उल्लासित क्रीड़ारत हैं। ऐसे दृश्य मैंने बचपन में ही अपने गांव में देखे थे। लेकिन तब महसूस नहीं कर सका था।
कितना बड़ा अंतर है। एक हमारा शहर, एक पड़ोसी जिला। सुना है, सरकार ने यहां के लिए भी कई योजनाएं बनाई हैं।
आने वाले दिनों में जो जिला छत्तीसगढ़ राज्य का सबसे अधिक धान उपार्जन करने वाला है, औद्योगिक महानगर बनेगा। कृषि भूमि का अधिग्रहण शुरू हो चुका है। सरकार कोई भी रास्ता अपना कर कृषि भूमि उद्योगों को देने की मंशा बना चुकी है। लोगों में भीतर ही भीतर आक्रोश है। महानदी, वर्धा, मंडवा संयंत्र स्थापित हो चुके हैं। सैकड़ों एकड़ कृषि भूमि नष्ट हो गई। धीरे-धीरे उद्योग अपने डैने फैलाएंगे..! एक दिन प्रकृति की गोद में बसा मेरा पड़ोसी जिला भी मेरे शहर-सा त्रासदी बरसाने लगेगा!