आलोक रंजन

कुछ दिनों पहले अपने देश की शैक्षिक संस्थाओं की श्रेणी यानी रैंकिंग घोषित हुई। इसमें उच्च स्थानों पर अधिकांश वही संस्थान हैं, जो पहले से ‘श्रेष्ठ’ मान लिए गए हैं और खबरों में जगह भी वही बनाते रहे हैं। निचले पायदानों पर कौन से संस्थान हैं, यह जानने की दिलचस्पी किसी की नहीं और वे वहां क्यों हैं, इसके लिए तो सोचने की जरूरत भी नहीं समझी जाती! जबकि देश भर में सबसे ज्यादा विद्यार्थी वहीं नामांकित हैं, जिनके बारे में जानने की दिलचस्पी किसी को नहीं है।

हमारे देश की शैक्षिक संस्थाएं एक-सी नहीं हैं। न तो उनका निर्माण एक-से मानकों पर हुआ है, न ही उनके परिचालन-संचालन में कोई एकरूपता है। एक ही तरह के नाम वाली संस्था होने पर भी उनमें समानता का अभाव होगा। मसलन, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान। दिल्ली के एम्स की तर्ज पर अलग-अलग जगहों पर कई एम्स खुल गए हैं, लेकिन क्या वे सब दिल्ली वाले एम्स के बराबर आ पाए हैं? इसका उत्तर नहीं ही होगा, चाहे कोई भी मानक ले लें। यही हाल बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के अलग-अलग खुले परिसरों के साथ भी है। भारतीय जनसंचार संस्थान के दिल्ली और ढेंकानाल परिसरों का स्तर एक समान नहीं है।

संस्थाओं के निर्माण और उनको बरतने में बड़ी-बड़ी खामियां हैं। नाम घोषित कर देने से उनका स्तर नहीं बन जाता। उनके निर्माण में अध्यापक, आधारभूत संरचनाओं, सभी तरह के विद्यार्थियों की जरूरत को समेट सकने वाली व्यवस्था आदि अगर वर्षों तक लागू हो, तो उनका नाम बनता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बड़ा विश्वविद्यालय है। आए दिन आने वाली रैंकिंग में उसका नाम ऊपर भी आता है, लेकिन क्या उसके वर्तमान स्वरूप को स्तरीय कहा जाएगा? वहां की आजादखयाली ने जो प्रतिष्ठा दिलाई थी, उसे भोथरा बना दिया गया, किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों का वहां दिल खोल कर स्वागत होता था, जो तरह-तरह के नियमों के आ जाने से अब उतना प्रभावी नहीं रह गया। इसके बावजूद उसका स्थान ऊपर है। यह बताता है कि रैंकिंग के तरीके में अन्य जो भी बातें हों, लेकिन सबको साथ लेकर चलने, हाशिये पर खड़े लोगों को बेहतर शिक्षा देने और शिक्षा की सामाजिक जिम्मेदारी तय करने वाले मानक नहीं ही हैं। और अगर हैं, तो उनकी स्थिति केवल खानापूर्ति करने के लिए है।

बेरोजगारी की दर, गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोग, साक्षरता की स्थिति, जाति आधारित भेदभाव आदि के आंकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि हमारा समाज हाशिये पर रह रहे लोगों से बना है। मगर इसकी बागडोर आभिजात्य चेतना से ओतप्रोत मुट्ठी भर लोगों के पास है। उस चेतना के लिए रैंकिंग जरूरी है, ताकि वहां से आने वाले विद्यार्थी यह चयन कर सकें कि उन्हें कहां पढ़ना है और इससे उनकी सांस्कृतिक पूंजी कितनी समृद्ध होगी, कितने ऐसे संपर्क बनेंगे जो जीवन में अलग-अलग अवसरों पर काम आएंगे। जबकि हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना ही बहुत बड़ी बात है।

वहां संस्थान के चयन की बात ही नहीं आती और आ भी जाए तो उन महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों को लालसा से देखने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह जाता। ऐसी अधिकांश संस्थाओं में अंकों के आधार पर प्रवेश मिलता है, अर्थात जिनके ज्यादा अंक होंगे वही उनमें पढ़ पाएंगे, बाकी विद्यार्थी कहीं और जाएं! यह तरीका अपने आप में भेदकारी है। ऊपर से, जहां परीक्षाएं होती हैं वहां के लिए तैयारी और तैयारी पर आने वाला खर्च और समय मिलना दुर्लभ है। साथ में उन सस्थाओं की भारी फीस उनके बारे में सोचने से भी रोकती है।

पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया की बहुत-सी मांगें हैं। उनको पूरा किए बिना अच्छे अंक पा जाना सरल नहीं है। विरले ऐसे होते हैं जो तमाम बाधाओं को पार कर बढ़िया अंक हासिल कर लेते हैं। पढ़ने के लिए एकांत, रोशनी की व्यवस्था, सहायक पारिवारिक वातावरण उन जगहों पर मिल पाना दुर्लभ है, जहां दो वक्त की रोटी का इंतजाम पहली प्राथमिकता है। ऐसे ‘गुरुभक्त आरुणि’ जैसे फर्जी प्रेरक किस्सों से काम नहीं चल पाता। तथाकथित अच्छी संस्थाओं में सबके लिए जगह नहीं है, इसलिए प्रतिस्पर्धा ही इतनी कड़ी कर दी जाती है कि विद्यार्थियों के पास स्वयं को दोष देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

हमारे संस्थान एक से नहीं हैं। ऐसी स्थिति में एक ही सूत्र से उन्हें जांचा जाना न्यायसंगत नहीं ठहरता। इस तरह की रैंकिंग उन विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की शैक्षिक प्रक्रिया और स्तर पर कोई भी दृष्टि डालने से रोकती है, जहां वंचित तबके के विद्यार्थी पढ़ते हैं। ऐसे संस्थान ज्यादा हैं, उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत है, लेकिन हमारे लिए रैंकिंग ही सब कुछ है!