प्रीति जायसवाल
पिछले दिनों एक तस्वीर पर नजर पड़ी, जिसमें एक शख्स ने अपने हाथ में एक बड़ा पर्चा या प्लेकार्ड लिए पकड़ रखा था। उस पर लिखा था- ‘लड़की घर भी संभाल लेगी और मेडल भी जीत लेगी… ये है हमारी भारतीय नारी’। ये बातें निश्चित तौर पर तोक्यो ओलंपिक में पदक जीत रही लड़कियों के लिए कही गई थी। मीराबाई चानू और पीवी सिंधु ने ओलंपिक में पदक जीत कर देश के साथ-साथ हम सबका मान बढ़ाया है, पर शायद हम इस मान और इज्जत का उचित खयाल रखना नहीं जानते हैं।
जो लड़कियां पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन कर रही हैं, एक सशक्त प्रेरणा बन कर खड़ी हैं, उनसे एक आम पारंपरिक धारणा वाला व्यक्ति यह उम्मीद लगाए बैठा है कि वे घर भी संभाल लेंगी। इसका सीधा-सा मतलब है कि औरत चाहे ओलंपिक में पद लाए या चांद पर पहुंच जाए, आखिर में उसे घर ही संभालना होगा। सवाल है कि ऐसी बातें लड़कों के लिए क्यों नहीं कही जातीं? उस पर्चे पर यह क्यों नहीं लिखा था कि लड़का घर भी संभाल लेगा और पदक भी जीत लेगा? ऐसा शायद इसलिए कि हमारे समाज में घर संभालना सिर्फ औरत की जिम्मेदारी मानी जाती है। यों घर संभालना या बच्चों की परवरिश करना कोई ऐसा बुरा काम नहीं है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि इस जिम्मेदारी को हमेशा सिर्फ औरतों के मत्थे मढ़ा जाता रहा है।
सदियों से हमारे समाज में यही परंपरा रही है कि महिलाएं घर संभालेंगी और पुरुष कमाएंगे। पुरुष पैसे कमाते हैं, इसलिए वे ‘बेहतर और श्रेष्ठ’ हैं, महिलाएं सारा दिन घर और रसोई में खुद को झोंके रखती हैं, इसलिए वे ‘कमतर और निम्न’ हैं। पुरातन काल से ही अर्थव्यवस्था की बागडोर पुरुषों के हाथ में सौंप दी गई और महिलाओं को आर्थिक मामलों से दूर रखा जाने लगा। उन्हें यह समझाया जाने लगा कि तुम घर परिवार और बच्चे संभालो, दुनियादारी हम संभाल लेंगे।
शारीरिक बनावट अलग होने के अलावा महिलाएं किसी भी तरह पुरुषों से कम नहीं हैं, अब यह कहना भी अजीब लगता है। फिर भी जीवन के हर कदम पर उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि वे पुरुषों से कमतर हैं। औरत अगर नौकरी करती हो तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह पहले अपने घर, परिवार, पति और बच्चों की जिम्मेदारी संभाले। ऐसे में अगर वह यह जिम्मेदारी संभालने में जरा भी चूक जाती है तो उसे ताने मारे जाते हैं कि उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने घर परिवार को संभालना, न कि नौकरी करना।
हमारे आसपास कितनी ही ऐसी महिलाएं हैं जो आठ-नौ घंटे की नौकरी के बाद घर आकर खाना बनाती हैं और बच्चों को संभालती हैं। औरतों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह हर काम में संपूर्ण हों। उन्हें खाना बनाना आता हो, सिलाई-बुनाई आती हो, साथ में वह ‘संस्कारी’ और ‘सुशील’ भी हो। मतलब वह एक ‘आदर्श’ बहू और पारंपरिक अर्थों में उपयुक्त पत्नी हो।
हालांकि इस धारणा में जीने वाले लोग ही अकेले दोषी नहीं है। भारतीय परिवारों में लड़कियों की परवरिश ही इस तरह की जाती है, जैसे बचपन से लेकर युवावस्था तक उन्हें पत्नी या बहु बनने का प्रशिक्षण दिया जा रहा हो। अगर किसी लड़की को खाना बनाना नहीं आता तो उसे ताना मारा जाता है कि ससुराल जाकर परिवार की नाक कटवा दोगी। कई परिवारों में तो लड़कियों को यह कह कर पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता कि उन्हें आगे जाकर चूल्हा-चौका ही तो संभालना है! जिस समाज में लड़कियों के पैदा होते ही उनकी शादी की चिंता की जाने लगती है, उस समाज से हम क्या उम्मीद रख सकते हैं! ऐसे में लोग और खासतौर पर पुरुष तो यही कहेंगे कि पदक-वदक तो ठीक है, पर तुम्हें घर संभालना आता है या नहीं!
ओलंपिक में पदक जीतती लड़कियों पर हर कोई नाज कर रहा है, लेकिन अगर कभी भी वे अपने घर-परिवार को उनकी मर्जी के मुताबिक खुश रखने में नाकाम रहेंगी तो उन्हें भी यही कह कर ताना मारा जाएगा कि तुम्हें कुछ सिखाया नहीं गया। हम भले ही ढोल पीट कर यह बताते रहें कि लड़के और लड़कियां बराबर हैं, लेकिन फिर भी हम इस सच्चाई को नहीं नकार सकते कि लड़कियों को हमेशा लड़कों से कमतर ही समझा गया है। जब हम यह कहते हैं कि ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के’, तब भी हम लड़कियों की बराबरी लड़कों से ही करते हैं।
इसका मतलब है कि हम लड़कों को लड़कियों से श्रेष्ठ मानते हैं। जब हम अपनी बेटियों को ‘बेटा’ कह कर बुलाते हैं, तब भी हम बेटों को ही बेहतर के दर्जे पर रखते हैं, क्योंकि हम तो अपनी बेटियों को बेटी के रूप में स्वीकार भी नहीं कर पाते। हम हमेशा उन्हें बेटा बनाने में लगे रहते हैं, ताकि हम समाज को यह दिखा सकें कि हम बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं करते, पर जब हम यह सफाई देते हैं कि हम फर्क नहीं करते, तब भी हम फर्क करते हैं।