निवेदिता
पच्चीस साल पहले भागलपुर जख्मों से भर गया था। एक बार फिर उसके जख्म हरे हो गए। स्मृति भी किस अंधेरे में अपना राज खोलती है। मुद्दत पहले की घटनाएं ऐसे याद आ रही हैं, जैसे आज की बात हो। भागलपुर दहक रहा था। दंगे की आग की लपटें मंद पड़ने लगी थीं। पर धुएं की तीखी गंध हवा में वर्षों तैरती रही। मुझे याद है कि भैया की कांपती आवाज फोन पर देर तक हम सुनते रहे। वे दहशत में थे। हम उन्हें रियाज भाई बुलाते हैं। मेरे पति के बड़े भाई। नाथनगर ब्लॉक के पास उनका घर था। भाभी सरकारी मुलाजिम हैं। उन्हें क्वार्टर मिला हुआ था। भाभी बच्चों के साथ अपने मायके गर्इं थीं। उसी दौरान शहर में तनाव बढ़ा। वे लोग वहीं रुक गए। भैया घर की ओर निकले। काफी दूर से ही देखा कि उनके घर में दंगाइयों ने आग लगा दी है। एक ठंडी-सी झुरझुरी पूरे बदन में भर गई। वे रो रहे थे।
आंखों के सामने सब कुछ जल कर खाक हो गया। वर्षों से तिनका-तिनका जोड़ कर जो घर बनाया था, वह राख में तब्दील हो गया। वे भागे थे। दहशत पीछा कर रही थी। उनके पास स्कूटी थी। सामने हथियारों से लैस लोग खड़े दिखे। उन्हें लगा कि अब बच पाना मुमकिन नहीं है। लेकिन वे पूरी ताकत लगा कर भागे और किसी तरह बच गए। भैया ने फोन पर यह सब बताया था। हम बुत बने खड़े थे। सब कुछ जल जाने से जो बचा, वह लोग लूट कर ले गए। इससे भयावह क्या होगा कि जिन लोगों के साथ सालों जीवन गुजरा, दुख-सुख साझा किया, वे ही कातिल थे। बाद में उन्होंने हमसे कहा था कि अगर हो सके तो कुछ कपड़े और जरूरी सामान भिजवा दो। मैंने दूध के डिब्बे, बरतन, साड़ी और बच्चों के कपड़े भेजे थे। जब कोई दंगा होता है तो सिर्फ लाश नहीं गिरती, मनुष्यता भी हारती है।
उस दंगे ने जो जख्म दिए, उसे भरने में जाने कितना वक्त लगेगा! भैया कहते हैं कि उस हादसे को हम याद नहीं करना चाहते। दुख बीत जाता है, पर डर ठहरा रहता है। एक ऐसे देश में, जहां के संविधान में सभी नागरिकों को जीने का अधिकार है, वहां कोई इसलिए नफरत का शिकार होता है कि वह किसी दूसरे धर्म को मानता है। उनकी स्मृतियों में चौबीस अक्तूबर 1989 का दिन आज भी ताजा है। दंगे ने धीरे-धीरे शहर के साथ-साथ भागलपुर जिले के अठारह प्रखंडों के एक सौ चौरानवे गांवों को अपनी चपेट में ले लिया था। दो महीने से ज्यादा चले इस दंगे में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ग्यारह सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे। हमारे परिवार ने अपने ही देश में आजादी के पहले के दंगे को झेला और बाद में भी। हमारे घर की हर पीढ़ी ने अपने समय को लहूलुहान होते देखा। हालांकि उनकी यंत्रणा चाहे जितनी कटु हो, गहरे दुख के बावजूद लोगों पर उनका यकीन बना हुआ है।
उस दंगे के पच्चीस सालों के बाद पीड़ितों के दावों की जांच-पड़ताल के बाद मुआवजा राशि का भुगतान किया गया। जिस दंगे में हजार से ज्यादा लोग मरे, कितने लापता हुए, वहां सरकार ने मृत और लापता लोगों के महज आठ सौ इकसठ लोगों के दावे ही स्वीकार किए। उनके परिजनों को अब तक प्रधानमंत्री राहत कोष से दस हजार, बिहार सरकार से एक लाख और फिर सिख दंगों की तर्ज पर साढ़े तीन लाख रुपए की सहायता राशि मिली है। लेकिन जिनके दावे स्वीकार नहीं किए गए, वे किसी तरह की सहायता राशि से अब तक वंचित हैं। सरकार की मुआवजा नीति के तहत ऐसे परिवार हकदार तो हैं, लेकिन उस नीति की शर्तों के तहत अपने दावे के समर्थन में वे साक्ष्य नहीं जुटा पा रहे हैं। जो परिवार दंगे के दौरान या उसके कुछ दिनों बाद अगर किसी भी कारण से एफआइआर दर्ज नहीं करवा सके, उनका दावा प्रशासन स्वीकार नहीं करता है। हालांकि ऐसे दावों के सत्यापन के लिए मुआवजा नीति में व्यवस्था है, लेकिन अधिकारियों के सत्यापन के सहारे पूरी होने वाली यह लंबी प्रक्रिया शायद ही किसी परिवार के लिए मददगार साबित हुई हो।
मैं नहीं जानती कि पच्चीस साल बाद कुछ लोगों को मिल सके मुआवजे से दंगों के जख्म भरेंगे या नहीं। लेकिन एक बार हम अपने लहूलुहान अतीत से सबक ले सकते हैं। हम याद कर सकते हैं उस बुरे दौर को, जिसमें भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन चलाया और बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया! उसके बाद क्या हुआ, सब जानते हैं। सबक वे पार्टियां भी ले सकती हैं, जिन्होंने हिंसा की जमीन बनाई। आज फिर पैदा किए जा रहे सांप्रदायिक तनाव के खिलाफ दंगों के जख्मों के दर्द याद करने की जरूरत है।
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