उमाशंकर सिंह

धर्मांतरण पर मचे शोरगुल के बीच सत्तारूढ़ भाजपा जोर देकर कह रही है कि वह धर्मांतरण रोकने लिए कानून बनाने के पक्ष में है। लेकिन कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां इस कानून के मुद्दे पर खामोश दिख रही हैं। दरअसल, धर्मांतरण और धर्मांतरण के बीच के फर्क है। एक धर्मांतरण जो आगरा में हुआ या जिसे अलीगढ़ में कराए जाने की तैयारी है और दूसरा वह जो झारखंड या ओड़िशा जैसे राज्यों के किसी गांव में चुपचाप हो जाता है और टीवी पर इसकी खबर नहीं बनती। समझने की सुविधा के लिए आगे हम ‘आगरा धर्मांतरण’ और ‘झारखंड धर्मांतरण’ शब्दों का प्रयोग करेंगे।

सही है कि कई मिशनरियां भारत में दशकों से धर्म परिवर्तन में लगी हैं। वे ऐसे इलाकों को चुनती हैं जहां हमारी सरकारें आज तक मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित नहीं कर पार्इं। न रोजगार के अवसर, न बच्चों की शिक्षा, न कोई आर्थिक गारंटी और न सामाजिक इज्जत। मिशनरियां वहां स्कूल खोलती हैं, रोजगार के प्रतीकात्मक सही, अवसर पैदा करने की कोशिश करती हैं। वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के अहंकार के साए में निचली कही जाने वाली जातियों के साथ हो रहे तिरस्कार का भी फायदा उठाती हैं। वे उन लोगों में आत्मसम्मान का भाव भरती हैं, जिन्हें कथित नीची जाति का बता कर हम मंदिरों में नहीं घुसने देते कि भगवान ‘अपवित्र’ हो जाएंगे। मिशनरियां उनके हाथों में बाइबिल पकड़ा देती हैं, चर्च में बुला कर मोमबत्ती जलवाती हैं। यानी मिशनरी वाले मोहताज लोगों को मूलभूत सुविधाएं देकर कर धर्म परिवर्तन कराते हैं, राशन कार्ड का आश्वासन देकर नहीं।

सरकार किसी भी राजनीतिक पार्टी की रही हो, किसी ने अंतिम आदमी तक विकास पहुंचाने की कोशिश नहीं की। उन्हें शायद ठीक लगता रहा कि उनका काम मिशनरियां कर रही हैं। भाजपा झारखंड में इस तरह के धर्मांतरण के खिलाफ है, इसलिए वह सख्त कानून बनाना चाहती है। कितना सीधा सरल और आसान रास्ता होगा एक कानून का जो किसी को धर्म परिवर्तन की इजाजत नहीं देगा! देश का सौ करोड़ का हिंदू परिवार अक्षुण्ण रहेगा। अगर कानून नहीं बनाया तो उन इलाकों में विकास पहुंचाने का दबाव ज्यादा पडेÞगा, जहां सुविधाओं की कमी के चलते लोग मिशनरियों की बातों में आ जाते हैं। यह दुरूह काम है।

कांग्रेस या दूसरी पार्टियां चुप हैं, क्योंकि वे आगरा जैसा धर्मांतरण तो नहीं चाहतीं, पर झारखंड जैसे धर्मांतरण से उन्हें एतराज नहीं। जब मैंने राजीव शुक्ला से पूछा कि वेंकैया नायडू कानून बनाने की बात कर रहे हैं, क्या कांग्रेस साथ है तो उनका जवाब था कि पहले वे प्रारूप लेकर आएं, हम पढ़ेंगे, फिर उस पर बात करेंगे। मतलब फिलहाल सैद्धांतिक तौर पर भी कांग्रेस सहमति नहीं देना चाहती कि कानून बने। पर क्या वह यह चाहती है कि कानून बने तो सिर्फ आगरा जैसे धर्मांतरणों के लिए? पेच यह भी है कि अगर कानून बन गया तो फिर भाजपा को राजनीतिक तौर पर निशाना साधने के लिए तरकश में कुछ तीर कम हो जाएंगे।

भाजपा की दिक्कत यह है कि वह झारखंड तरह का धर्मांतरण रोकना चाहती है, पर आगरा तरह के धर्मांतरण से उसे एतराज नहीं। इस तरह के कामों में लगे रहने से अलग-अलग आनुषंगिक हिंदूवादी संगठनों की व्यस्तता भी रहेगी। नहीं तो पार्टी से वे कोई और काम मांगेंगे। वे बिगड़ गए तो धर्म के सहारे राजनीति का सारा ताना-बाना बिखर सकता है। इसलिए पैदल सैनिकों को रोकने का सौदा सत्ता की सेहत के लिहाज से ठीक नहीं होगा। भाजपा के विनय कटियार जैसे नेताओं की मानें तो भारत के मुसलमानों की पांचवीं-छठी पीढ़ी पहले के लोग हिंदू थे। मुगलों के काल में बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हुए। तो क्या उनके कहने का यह मतलब निकाला जाए कि अब मोदीजी की सरकार इतनी पीढ़ियों के बाद आई है तो ‘घर वापसी’ का कार्यक्रम भी तेजी पकड़ रहा है? कई सवालों के जवाब के लिए कानून के प्रारूप का इंतजार करना पड़ेगा। वही इस मसले पर भाजपा की मंशा का दस्तावेज होगा।

जहां तक समाजवादी पार्टी का सवाल है, तो वह कानून के पक्ष में क्यों खड़ी होगी! मुजफ्फरनगर दंगा धर्मांतरण का मुद्दा नहीं था और दंगा रोकने के लिए प्रशासन के पास तमाम कानूनी अधिकार थे। फिर भी दंगे हुए और लंबे खिंचे भी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुसलमान मिल कर अजित सिंह को वोट देते थे। इस दंगे ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। बेशक फायदा समाजवादी पार्टी को सीटों के तौर पर नहीं हुआ हो, लेकिन नुकसान मुलायम के विरोधी अजित सिंह को कितना हुआ, यह सामने आ चुका है। तो जो पार्टी कानून पर अमल राजनीतिक जरूरत से करती या नहीं करती हो, उसके लिए एक और कानून का क्या मतलब! मामला ऐसे ही उठता रहे तो फायदा ऐसे ही मिलता रहे! मुलायम ने धर्मांतरण पर संसद में बहस की मांग में जोर-शोर से हिस्सा लिया और जब बहस हुई तो मुकर गए कि आगरा में धर्मांतरण की कोई कोशिश हुई! कहा कि अखबार में छपी खबर से संसद चलेगी क्या!

 

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