हेमंत कुमार पारीक

समय कितना बदल गया है। हालांकि यह बात शायद हर दौर में कही जाती होगी और इसके समांतर सच यह भी होता है कि समय के साथ हम भी बदलते रहे हैं। अब भी यही है कि एक ओर समय बदल रहा है और दूसरी ओर बचने या अनदेखी करने की कोशिश के बावजूद जरूरत के मुताबिक हम भी बदल रहे हैं। पहले गांव में छोटे-छोटे खेल-तमाशे ही मनोरंजन का साधन होते थे।

सड़क के किनारे या चौराहे पर बाजीगर या नट कहे जाने वाले कलाकार वगैरह अपना खेल दिखाते थे। कभी सांप और नेवले की लड़ाई का दृश्य होता था, कभी दो बांसों के बीच बंधी रस्सी पर छोटी उम्र की लड़की साइकिल के पहिये की रिम पर दोनों हाथों में बांस से संतुलन करते चलती दिखती थी। ढोलक की थाप पर उसकी हर गतिविधि होती थी। हम बच्चों से इस तरह श्रम कराने या शोषण करने का सवाल उठा सकते हैं और यह मानवीय संवेदना के अनुकूल है। लेकिन शायद उनकी जरूरतों और व्यवस्था के दुश्चक्र पर बहस अभी बाकी है।

खैर, तब कहीं बाजीगर होते थे जो हाथ की सफाई दिखाते हुए रूमाल से कबूतर निकालते, कहीं भीड़भाड़ वाली जगहों पर पुलिस से नजर बचा कर बदमाश तीन-पत्ती के खेल के जाल में अच्छे-अच्छो को फांस लिया करते थे। ये रोजमर्रा के मनोरंजन थे। कहीं खानाबदोशों के तम्बू में चखरी और चाकू वाले खेल चलते थे। शाम के समय वहीं से आवाजें आती थीं- ‘लगाएगा तो पाएगा, वरना खड़ा-खड़ा पछताएगा। एक के पांच, एक के पांच..!’

ये सारे खेल मैंने अपने बचपन में देखे थे। किसी काम के लिए, मसलन सब्जी वगैरह या घर का सामान आदि लेने बाजार जाते हुए खेल-तमाशा देखने बीच रास्ते में खड़े हो जाते। तस्वीरों से लेकर फिल्में तक मनोरंजन का साधन थीं। फिल्म देखने का मौका महीने दो महीने में एक बार मिलता था। लेकिन फिल्म के धार्मिक किस्म की होने की शर्त के साथ। अकेले फिल्म देखने की मनाही थी। बड़े भाइयों के साथ या कभी-कभी पिताजी के साथ जाना पड़ता था।

साल छह महीने में सड़क से दूर मैदान में साइकिल के शो हुआ करते थे। वहां समय-समय पर साइकिल चलाने के विशेषज्ञ आते रहते थे। कभी कोई बहत्तर घंटे साइकिल चलाने का रिकॉर्ड बनाता, तो कोई नब्बे घंटे का। फिर कोई उससे ज्यादा एक सौ बीस घंटे लगातार साइकिल पर करतब दिखाते हुए लोगों को हैरत में डाल देता था। इस प्रकार रिकॉर्ड बनते और टूटते रहते। वे मैदान में एक निश्चित परिपथ में धीमी गति से साइकिल चलाते थे।

अब समझ में आता है कि यह उनकी रणनीति होती थी। आते-जाते लोग रुपए-पैसे देकर उनका उत्साह बढ़ाते थे। मगर हम लोग तो खाली हाथ वालों में से थे। फोकट का मनोरंजन करते थे। बस स्कूल आते-जाते देखते थे। फिर भी जेहन में एक प्रश्न जरूर उठता था कि कोई बिना रुके निरंतर इतनी लंबी अवधि तक साइकिल कैसे चला सकता है! यह सवाल हम भाई साहब से पूछते तो वे धीरे से मुस्कुरा देते थे। बस इतना भर कहते कि पेट भरने के सबके अपने-अपने तरीके होते हैं। कम से कम वे लोग भीख तो नहीं मांगते।

साइकिल सबकी चहेती थी। जिसके पास थी, उसकी भी और जिसके पास नहीं थी, वह साइकिल की सवारी के लिए लालायित रहता। समृद्ध परिवारों के बच्चे ही साइकिल से स्कूल जाया करते थे। पांव-पैदल स्कूल जाने वाले बच्चे उनकी साइकिलों को ललचाई नजरों से देखते। कारण कि उस दौर में साइकिल खरीदना भी वैसा ही था, जैसे आज के वक्त में कार।

आज से करीब दस वर्ष पहले मैं एक दूरदराज स्थित गांव में नौकरी करता था। उस गांव में उस समय आवागमन के साधन सीमित थे। गिनी-चुनी बसें आया-जाया करती थीं। लोगों के आवागमन का मुख्य साधन साइकिल ही थी। वहां लोग उसे ‘शान की सवारी’ के नाम से पुकारते थे। मैं जिस कॉलेज में सेवा देता था, वहां साइकिल स्टैंड थे। कॉलेज शुरू होते ही साइकिलों की लंबी-लंबी कतारें अद्भुत नजारा पेश करती थी।

मेरे उस छोटे से गांव में उस समय बहुत कम लोगों के पास साइकिल थीं। हमारे गांव का एक सेठ साइकिल से ही खेत-खलिहान और बाजार आया-जाया करता था। पर अब गांव कस्बे हो गए और कस्बे छोटे-छोटे शहरों में बदल रहे हैं। मोटरसाइकिल और कारों से गांव भर गया है। लेकिन सेठ की वह साइकिल आज भी मौजूद है। सत्तर वर्ष की उम्र में भी उसने साइकिल का साथ नहीं छोड़ा है। निरोग है। शायद साइकिल के कारण ही। वरना तो उसकी उम्र के लोग ठीक से चल फिर भी नहीं पाते।

महामारी की त्रासदी के बाद अचानक साइकिल के दिन फिरे हैं। पुराने साइकिल परिपथों पर चहल-पहल बढ़ गई है। और साइकिल की वे दुकानें जो कभी मनहूसियत ओढ़े रहती थीं, अब गुलजार हैं। अब तो सुबह-सुबह बुजुर्ग भी सेहत की फिक्र में साइकिल चलाते करते नजर आने लगे हैं। साइकिल एक शालीन सवारी है। उसे चलाने के अनगिनत फायदे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि साइकिल पर्यावरण की हितैषी है। शायद हमारे गांव के सेठ को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि शरीर के दुरुस्त रहने के लिए साइकिल से बेहतर और दूसरा कोई साधन नहीं है।