समाज की सबसे लघु इकाई हमारा परिवार आज उस मुहाने पर खड़ा दिखता है जहां प्रतिकूलता के प्रवाह अधिक हैं। एकल परिवार की रचना ने व्यक्ति को आत्मीय आंगन में सीमित तो किया ही है, साथ ही साथ वह पराश्रित भी हो गया है। ग्रामीण बचपन की स्मृति मंजूषा में दर्ज घटनाएं याद दिला रही हैं कि घर में किसी के बीमार पड़ने पर कोई न कोई सदस्य उसके पास बैठ कर रोगी की सेवा-सुश्रूषा में सदा तत्पर रहा करते थे। दूसरे व्यक्ति के आने पर ही पिछले समय से बैठे व्यक्ति वहां से जा पाते थे। बुखार लगने पर स्थानीय चिकित्सक के द्वारा दी गई होम्योपैथी की मीठी गोली या शीशी में खुराक चिह्न लगे तरल मिश्रण के अतिरिक्त पूरा बुखार उतरने के पहले अनाज का सेवन वर्जित हुआ करता था।
हां, कभी-कभी साबुदाना, मखाना या बार्ली की खुराक जो गले में अटक कर, लेकिन मन को मसोस कर उदरस्थ हो जाता था। पूरे ज्वर काल तक दैनंदिनी का यह उबाऊ हिस्सा हुआ करता था। बीमार पड़े व्यक्ति को मानसिक खुराक में लोगों की अनवरत उपस्थिति उसकी देखभाल और मन लगाने के लघु किस्से-कहानियों की प्रचुरता होती थी। घर में किसी सदस्य के अस्वस्थ होने की खबर कानों-कान पड़ोस के हर घर में पहुंच जाती थी और बारी-बारी से लोग पीड़ित को देखने, किसी सामग्री की आवश्यकता की पूर्ति में हाथ बंटाते थे। यह आत्मीय भाव पड़ोसियों को सुख-दुख में हमेशा बांधे रखता था। ज्वर उतरने के बाद चिकित्सक के परामर्श के मुताबिक ‘पथ्य सेवन दिवस’ तय होने पर रोगी को इसकी प्रतीक्षा होती थी। घरेलू चक्की से निर्मित आटे को गर्म पानी में उबाल कर उसके फुलके यानी छोटे आकार की रोटी के साथ मूंग दाल, परवल या भिंडी की रसदार सब्जी घी के फोरन में बिना मसाले के सेवन का पल किसी उत्सवी माहौल से कम नहीं होता था। कुएं से निकले पानी को उबाल कर मटके में लौंग डाल कर फिल्टर की प्रक्रिया के तहत उसे दिन भर पीने का चक्र बना रहता था।
बुखार के बाद जिह्वा के बिगड़े स्वाद को सामान्य करने की तरकीब घरेलू नुस्खे में नींबू का अचार या कटे नींबू के अंश पर कालीमिर्च का चुटकी भर पाउडर और काला नमक को छिड़क कर उसे चूल्हे पर गर्म करके जिह्वा सेवन की पद्धति पूर्ण आरोग्यता में प्रेरक का काम करता था। कुछ दिनों तक खानपान में परहेज, दौड़-धूप से मुक्ति व्यक्ति को शीघ्र निरोग कर सामान्य दैनंदिनी से जुटने का धरातल प्रदान करता था, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता का सृजन कर शारीरिक रूप से रोगी को ऊर्जान्वित करता था। बदली परिस्थितियों में गांव, नगर, महानगर में हल्की-सी बीमारी के प्रकोप ने भी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर बना दिया है।
एकल परिवार की सरंचना से एक ओर व्यक्ति अपने को असुरक्षित आंगन में पा रहा है, जबकि विभिन्न कोटि के औषधि के अजायबघर में वह तय नहीं कर पाता कि सामान्य सर्दी जुकाम, बदन दर्द, सिरदर्द, पेट खराबी आदि के उपचार के लिए कौन-सी दवा का सेवन करे। आखिरकार वह चिकित्सक के शरण में जाकर लोकप्रिय ‘एंटीबायोटिक’ औषधि के सेवन की मनोस्थिति प्राप्त करता है। दूसरी स्थिति यह भी है कि वह परिवार में अगर अकेला है, तो अपनी रोजी-रोजगार से कुछ दिनों के विलगाव उसे आर्थिक संकट में डाल सकते हैं। चारपाई पर ज्यादा पड़े रहने से उसकी देखभाल में भी कमी होगी। हालांकि ऐसे उदाहरण से सुखी-संपन्न परिवार मुक्त हैं, जबकि लघु और मध्यवर्गीय परिवार दाल-रोटी की जुगाड़ में हर दिन पसीने बहाते हैं। उनका बीमार होना उनके परिवार की लिए गंभीर हालात उत्पन्न करते हैं।
बीते करीब डेढ़ साल ने मानव जीवन के चक्र के पहिये को विपरीत अवस्था में घुमा दिया है। इसकी मार से पूरा विश्व अभी उबर नहीं सका है और आने वाले समय के खतरे सामने दिख रहे हैं। कभी छुआछूत जैसी चेचक और तपेदिक बीमारियों में लोग रोगी के समीप नहीं जाते थे। उसे दूर से निहारना, हाल-चाल पूछना, औषधि के प्रबंधन रोगी को सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कृत भंगिमा का शिकार बना देती थी। इससे भी बदतर हालत कोरोना रोगियों की हुई है। अधिकतर पीड़ितों की मृत्यु अकेलेपन के परिणामस्वरूप मानसिक आघात से होने के समाचार ने पारिवारिक रिश्ते के राग में दूरगामी प्रश्न चिह्न उकेरा है।
कुछ ऐसे मामले मसलन मृतक के पार्थिव शरीर को परिवार द्वारा अस्वीकार करना, शवों का नदियों में प्रवाह, समुचित चिकित्सीय प्रबंध में कमी ने मानवीय संवेदनाओं के विघटन व्यथा का क्रूर दृश्य भी दर्शाया है। अन्य साधारण बीमारियों से पीड़ित अधिकतर व्यक्ति आज निराश्रित अवस्था में सहानुभूति और सेवा के मोहताज है। कभी साधारण बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के सिरहाने किसी की सदैव उपस्थिति की पूर्वजों की आचार संहिता उसे हिम्मत और धैर्य प्रदान करती थी। आज सोशल मीडिया के चकाचौंध लिपि के ‘गेट-वेल-सून’ की कृत्रिम खुराक ने हमारे मोबाइल के ‘इनबॉक्स’ को भर दिया है। चूंकि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि सबेरे के भूले हम शाम तक घर जल्द लौट सकेंगे, ताकि सहानुभूति अपने सात्विक संसार में उड़ान भरता रह सके।