महामारी के दिनों में सुबह-शाम की सैर भी बाधित हुई, अब वह कुछ ‘खुली’ है और अपनी-अपनी सोसायटियों के परिसर में या आसपास के पार्कों में लोग फिर सैर के लिए आने लगे हैं- सावधानियां बरतते हुए, मास्क पहन कर। निश्चय ही जिन्हें सैर पसंद है, उनके लिए यह कुछ राहत की बात है। सैर बहुतों को बहुत पसंद है और उनकी नियमितता में कोई बाधा पड़े तो वह उन्हें खलनी स्वाभाविक है।
सैर के जो गुण गिनाए जाते हैं, उनमें स्वास्थ्य का गुण सर्वोपरि रखा जाता है। पर मेरी समझ में सैर का संबंध सौंदर्य की भूख को भी शांत करने से जुड़ा हुआ है। खुली हवा में सांस लेने से भी उसका संबंध है। फूल-पौधों-वृक्षों, पक्षियों आदि को निहारने का सुख, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आकाश के रंगों में भी क्षण-दो क्षण के लिए डूब जाने का आनंद कोई सैर करने वालों से पूछ कर तो देखे!
सैर दरअअल एक छोटी-मोटी ‘यात्रा’ की तैयारी भी है। सैर पर जाने वाले लोग खुद अपने से, अपने वस्त्रों आदि का चयन करते हैं। जो घड़ी लेकर चलते हैं, या जिन्हें बेंत या छड़ी लेकर चलना, साथ रखना, भाता है, (बस शोभा के लिए या जरूरतन इस्तेमाल करने के लिए) वे सैर पर जाने से पहले उसे साथ रख लेना नहीं भूलते हैं। यह अपेक्षा भी खुद से रहती है कि बाल संवरे हुए हों, पैरों में पहने गए जूते-चप्पल सुविधाजनक हों। लेकिन अब इस सबमें कुछ छूट मिली है, क्योंकि स्वयं वस्त्रों आदि के मामले में ‘औपचारिकता’ में कमी आई है। पर एक वर्ग वह भी है युवाओं का, प्रौढ़ों का जो सैर के लिए अलग कपड़े, अलग जूते, और अलग समय भी रखता है।
हमारे देश में सैर पर जाने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और अब वह वरिष्ठ नागरिकों के (स्त्री-पुरुष दोनों) के बीच पहले से अधिक लोकप्रिय हो गई है, जो आमतौर पर तीन-चार या अधिक सदस्यों की टोली में सैर करते हैं, बतियाते हुए। इनमें से कई सैर का समापन एक ‘गोष्ठी’ से करते हैं- किसी पुलिया पर, पार्क की किसी बेंच पर या चाय की किसी दुकान पर। कोलकाता जैसे शहर में तो सचमुच बहुतों के लिए यह एक नियम-सा है कि सैर के बाद कहीं बैठ कर चाय पी जाएगी, गपशप होगी।
जिन्हें सैर पसंद है, वे उसके बिना रह ही नहीं पाते हैं। अपनी कहूं तो मैं भी इसी वर्ग का हूं। देश-दुनिया में कहीं भी रहा हूं, सुबह की सैर की है। यह बात भी काफी दिलचस्प है और मैंने खुद बहुत बार इसका अनुभव किया है कि स्थान के लिहाज से सैर का ‘अनुभव-संसार’ बदल जाता है। इसलिए सागर या नदी या झील या सरोवर के किनारे की सैर ‘अलग’ तरह की होती है और पहाड़ी पगडंडियों की सैर अलग तरह की! महानगरों और नगरों के फुटपाथों पर की जाने वाली सैर तो होती ही है भिन्न प्रकार की। पर पिछले दशकों में हमारे छोटे-बड़े पार्क और उद्यान ही सैर की प्रिय ‘स्थली’ बने हैं, इसमें शक नहीं।
यह पिछले दशकों में ही हुआ है कि कई नगरों-महानगरों में अब सैर के लिए पार्कों-उद्यानों में आपको कुछ शुल्क चुकाना पड़ता है, जो दो रुपए से लेकर दस रुपए तक का हो सकता है। पार्कों का प्रबंध अब अधिक व्यवस्थित हुआ है— फूल-पौधौं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और रोज सुबह किसी पार्क में सैर के लिए जाने वाले सैलानियों को अपने-अपने पार्कों से लगाव भी बहुत हुआ है।
महानगरों की उन चुनिंदा पघों-पगडंडियों में भीड़ भी बहुत बढ़ी है, जो सैर की दृष्टि से मनोरम और खुले स्थल माने जाते रहे हैं। इसलिए कोलकता का विक्टोरिया मेमोरियल से या दिल्ली का लोधी गार्डन— वहां हर साल या हर महीने ही नहीं, मानो हर दिन सैर करने वालों की संख्या कुछ तो बढ़ी हुई मिलती ही है। ऐसे ही प्रिय स्थल अलग-अलग शहरों के भी हैं। जैसे जयपुर में कई बड़े-मंझोले सुंदर पार्क और उद्यान हैं।
भोपाल में भी कई, जिनमें से एक का नाम है, ‘एकांत पार्क। ‘वन विहार’ तो है ही। चंडीगढ़ की तो कहना ही क्या! सुबह के समय आप किसी भी सेक्टर के किसी भी फुटपाथ पर टहलें, अहसास किसी पार्क या उद्यान में टहलने जैसा ही होगा।
हिंदी में सैर के लिए ‘अटन’ शब्द भी रहा है, और श्रीधर पाठक ने तो ‘सांध्य अटन’ नाम से एक कविता ही लिखी थी। ‘अटन’, वैसे यात्रा सफर, भ्रमण आदि का अर्थ भी देता ही है। जो भी हो, प्राकृतिक सुषमा को निहारने, प्रकृति के साथ कुछ समय बिताने, मंद हवा के स्पर्श को शरीर और मन पर अनुभव करने का एक प्रसंग भी है सुबह-शाम की सैर, क्योंकि सचमुच कब हमने नहीं चुना सैर के लिए वह स्थल जो शांत हो, सुषमा संपन्न हो, मनोरम हो, जहां या तो जल का कलकल स्वर हो, या पक्षियों का कलरव हो या फूल-पौधों-वृक्षों की ऐसी मनहर कतारें हों, जो मानो मन हरने के लिए ही सजाई गई हों।
और ये सभी एक साथ हों तो फिर कहना ही क्या! अचरज नहीं कि कई पार्कों-उद्यानों में छोटा-मोटा ही सही, एक जल-कुंज भी होता ही है।