प्रदीप कुमार राय

‘और सुनाइए! बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’ यह सवाल अमूमन हर व्यक्ति अपने किसी जानकार से भेंट होने पर पूछता ही है। अगर बरसों बाद भी दो भारतीय परिवार मिलें, तो आधा समय इसी विषय पर चर्चा में लगा देते हैं। मगर पिछले काफी समय से लोग बच्चों की पढ़ाई को लेकर एक-दूसरे से यह सवाल करने से बचते हैं। बहुत से अभिभावक कहते हैं कि यह तो अब सवाल ही नहीं रहा। उनका कहना है कि हां, दुबारा यह पूछने लायक सवाल बन जाएगा, जब फिर से पूरी तरह कक्षाएं नियमित होंगी। कई अभिभावक अकसर कहते सुने जाते हैं कि ‘आनलाइन की पढ़ाई में बच्चों के सीखने की क्या चर्चा करना। इसमें सीखना होता ही क्या है? खासकर छोटे बच्चे तो बात पकड़ ही नहीं पाते।’ यानी अधिकांश अभिभावकों में घोर निराशा है।

काफी अरसे बाद पिछले दिनों स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक की कक्षाएं नियमित होने से विद्यार्थियों के बुझे हुए दिलों में दीपक जले थे। मगर उत्साह का दीया अभी पूरी लौ पकड़ भी नहीं पाया था कि फिर कोरोना की लहर में अचानक आदेश आए कि कक्षाएं अब आनलाइन होंगी? यह सुनते ही विद्यार्थी किस निराशा में डूबे, इसका अंदाजा कोई शिक्षक ही लगा सकता है। उस दिन जब यूनिवर्सिटी से हाथों में सामान उठाए विद्यार्थी परिसर छोड़ कर घरों को निकले, तो कई बुरी तरह रोए। कई रुंधे हुए गले से बात करते रहे। उनको शिक्षकों ने लाख समझाया कि हालात सामान्य होंगे और वे फिर कैंपस लौट आएंगे, लेकिन वे कुछ सुनने को तैयार नहीं।

दूसरी लहर के बाद नियमित होने पर विद्यार्थी मान बैठे थे कि अब उन्हें आनलाइन की तरफ दुबारा जाना नहीं पड़ेगा, लेकिन उस चांदनी की उम्र चार दिन ही निकली। कई विश्वविद्यालयों में तो दुबारा कक्षाएं नियमित शुरू होने और खत्म होने का सिलसिला ऐसा निकला जैसे फुलझड़ी चलने के तुरंत बाद बंद हो जाती है। ऐसे में विद्यार्थियों में आशा का उदय और अस्त बस एक साथ ही हुआ।

आनलाइन कक्षाओं को लेकर न तो अभिभावकों का ज्यादा भरोसा बन पाया और न ही अधिकांश विद्यार्थी इसमें संतुष्ट हो पाए। पिछले दिनों हुए कई सर्वेक्षणों में विद्यार्थी और अभिभावकों ने आनलाइन कक्षाओं को अधिक उपादेय नहीं माना। पर सरकारें भी अपनी जगह ठीक हैं कि महामारी के इन हालात में नियमित कक्षाएं चलाने का जोखिम नहीं उठा सकती।

इस स्थिति में अभिभावक, विद्यार्थी और सरकार सभी तो अपनी जगह ठीक हैं। इन सबके बीच एक और महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जो अपनी जगह बिलकुल ठीक है, पर उसे खुद को ठीक साबित करने के लिए बहुत धर्मसंकट से गुजरना पड़ता है। वह है शिक्षक। उसे विद्यार्थियों की निराशाओं के निरंतर हल देने होते हैं। विद्यार्थियों के टूटते सब्र को निरंतर बांधे रखना होता है। हर नई लहर उसके इस काम को कई गुना मुश्किल बना रही है।

इन चुनौतियों से इतर कोई शिक्षक विद्यार्थियों के इन प्रश्नों के जवाब कहां से दे कि ‘महामारी की चिंताओं में सबसे पहले शिक्षण संस्थान ही पूरी तरह क्यों बंद होते हैं। जब कभी शिक्षण संस्थान के साथ और चीजें बंद होती हैं, तो शिक्षण संस्थान ही सबसे देर में क्यों खुलते हैं? सर, आप ही बताइए।’ व्यवस्था से जुड़ी लाख दलीलें देने पर भी उनके सवाल ज्यों के त्यों कायम रहते हैं।

विद्यार्थी उन लोगों से सवाल करने नहीं जा सकता, जो इनके निर्णय लेते हैं। उसे तो सारे सवालों के जवाब शिक्षक से चाहिए। अब शिक्षक इतना निष्ठुर भी तो नहीं हो सकता कि बच्चों को कह दे कि जाओ व्यवस्थापकों से सवाल पूछ लो। शिक्षक को शासन-प्रशासन के आदेशों-निर्देशों का भी कड़ाई से पालन करना है और विद्यार्थी के लाख एतराज सुन कर भी उन्हें यथास्थिति से तालमेल बिठाने के नुस्खे देने हैं। आनलाइन को लेकर उसे विद्यार्थियों और अभिभावकों को किसी तरह निराशा में भी नहीं डूबने देना है और शिक्षण के इस माध्यम को सीमाओं से पार जाकर निरंतर रुचिकर बनाना है, क्योंकि कोई शासन-प्रशासन शिक्षक को इसका तैयार समाधान नहीं दे सकता। ऐसे में कितना संतुलन उसे बनाना है।

कोई शिक्षक अपने विद्यार्थी को उसी सीमा तक उम्मीद बंधा सकता है, जिस सीमा तक वह अपनी बात को तर्क के आधार पर सही सिद्ध कर सके। विद्यार्थी की शिक्षक के प्रति आस्था ही तब तक है जब तक वह शिक्षक के तर्क से सहमत है। अगर उसे शिक्षक का तर्क कमजोर पड़ता नजर आए, तो फिर वह उसी वक्त शिक्षक में आस्था खो देता है।

अब तीसरी लहर का आनलाइन शिक्षण शिक्षक को और बड़े धर्मसंकट और चुनौतियों के सामने खड़ा करेगा। मूल आशय है कि आनलाइन शिक्षा पर हमें हाल-फिलहाल तो आगे चलना ही है, उसकी निराशाजनक स्थिति को तोड़ने के उपाय खोजे जाएं। उसमें उत्साह के रंग भरने के विकल्प सब मिलकर खोजें। अन्यथा जड़ता में हम कितना चल पाएंगे।