कृष्ण कुमार रत्तू

इन दिनों बदलते हुए मौसम में जिंदगी भी लम्हा-लम्हा कुछ तन्हा स्मृतियों से गुजर रही है। मौसम के साथ बदलाव की आहट जिंदगी का एक नया पन्ना खोलती है। समय का यह काल चक्र ही असल में जिंदगी का इतिहास और वर्तमान रचता है। ऐसा नहीं है कि इसमें कुछ नया है। आदि काल से यह सिलसिला चलता आ रहा है और चलता रहेगा।

एडवर्ड सईद ने ठीक ही सोचा था कि ‘यह जीवन प्रकृति का एक खूबसूरत इंद्र्नधनुष है, जिसमें सभी रंग समाहित हैं। यह काले या गोरे का भेद नहीं है।यह आदमी की नस्ल का विकास दिखता है। यही इतिहास और वर्तमान में छिपा वह भविष्य है जो हम आने वाली नस्लों के लिए छोड़ कर जाएंगे’।

आज यह सत्य तेज रफ्तार जिंदगी से और भी गहरा हो गया है। हमारे महानगर भीड़ से बेकाबू होकर आने वाले समाज की एक अलग नई तस्वीर दिखाते हैं। देश के गांव खाली हो रहे हैं। उदास गांव में अब वृद्ध माता-पिता के बिना मंडेरे भी सुनसान हो चुके हैं।

सच तो यह है कि आज वर्तमान मनुष्य के अंदर एक अजीब सुनसान पसर चुका है और वह आज एक गहरी उदासी से भरे अवसाद से गुजर रहा है। जब जीवन के वास्तविक सूत्र हम जाने-अनजाने पीछे छोड़ देते हैं या उनकी अनदेखी करते हैं, तब ऐसे हालात से रूबरू होना स्वाभाविक है। कई बार अतीत की परछाइयां हमारा पीछा भी करती हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हमने उन परछाइयों के साथ कैसे भाव संजोए थे।

जिंदगी इंद्रधनुषी रंगों का एक खूबसूरत कोलाज है। यह मानव निर्मित विनाशकारी आविष्कारों के कारण धुंधली तस्वीर में बदल गई है। हमारे महानगरों की हालत इतनी बिगड़ गई है कि वहां अब सांस लेना भी दूभर हो गया है।

पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली दुनिया की सबसे दूषित राजधानी के तौर पर घोषित हो चुकी है। चारों ओर धुएं और धुंध के गुबार ने सांस लेना भी मुश्किल कर दिया है। यही हाल हमारे दूसरे बड़े शहरों का भी हो गया है। अफसोस यह है कि यह हालत स्वच्छता के नारे के बरक्स खड़ी होती जा रही है।

जब हर तरफ पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए वैश्विक स्तर पर चिंता जताई जाती है और दुनिया के तमाम देश चिंता जताते हुए आपस में इससे संबंधित काम बांटते हैं, तब उम्मीद जगती है कि अब ठीक होगा। लेकिन जब वही देश हजार बहाने बना कर अपने यहां की हवा को प्रदूषण के धुएं में झोंकने में सबसे आगे रहते हैं या फिर उसकी अनदेखी कर देते हैं, तब समझ में आता है कि उनका असली सरोकार क्या होगा!

हमने महानगरीय शहरों के साथ-साथ सुदूर भारत में जल, जंगल, जमीन का जिस तरह से बेरहमी से दोहन किया है, वह हमें दिखाता है कि हम आने वाले दिनों में अपने गांव के आसपास भी रहने योग्य स्थान से मरहूम हो जाएंगे। यह कैसी विडंबना है कि हम खुद ही आने वाली नस्लों के लिए सब कुछ नष्ट करते जा रहे हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि हम जल, जंगल, जमीन के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति और भाषा- सब कुछ को छोड़ते जा रहे है। यही आज का जीवन परिदृश्य है। फिर जब हमारे भविष्य पर इनसे वंचित होने के साए का सामना करेगा तब शायद हम अपनी आज की मनमानी को याद करेंगे!

उपनिषद, वेद और पौराणिक ग्रंथ हमारे इतिहास की विरासत को जिस तरह से संजोए हुए हैं, वह अद्भुत है। लेकिन इन दिनों इस उपभोक्तावादी तकनीक की नई दुनिया के जलजले से गुजरते हुए हम नई पीढ़ी तक यह सब कुछ नहीं पंहुचा पा रहे हैं।

यह सत्य इस तरह से भी आंका जाएगा कि इस बदलते दौर में हमने वह सब कुछ छोड़ दिया, जिसमें हमारे परिवार समाज और व्यवहार की झलक दिखाई देती थी। हमने वह भाषा छोड़ दी, जिसमें नानी और दादी के नुस्खे और पुरखों की सीख से जीवन चल रहा था। क्या आप अभी नहीं मानेंगे की इंटरनेट की इस नई पीढ़ी ने भाषा संस्कृति को तो भुलाया ही है, इसके साथ किताब की संस्कृति भी अब खत्म हो रही है।

यह समय के इस काल चक्र में आगे बढ़ते हुए समाज, देश और विश्व के लिए चिंता का विषय है, लेकिन चिंता किसी को भी नहीं। ठीक उसी तरह, जैसे कहा गया है कि दुनिया इसी तरह चलती है। इस चलती हुई तेज भागती हुई दुनिया में आप भी चलते चलें। और सच यही है कि चलने का नाम ही जिंदगी है।

शोर-शराबे भीड़ और संस्कारविहीन नव संस्कृति में साहित्य के शब्द दब गए है। धुआं-धुआं इस जिंदगी में जब अंतर्दृष्टि से देखता हूं, तो यह कोशिश भी शून्य से लौटती हुई गुम हुई आवाज-सी लगती है।अब शायद किसी के पास यह सोचने की फुर्सत भी नहीं कि इस धुआं-धुआं हर लम्हा दर्द का एक दरिया बन गया है, जिसे पार करना ही जिंदगी है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।