सुरेश सेठ
गरीबी, भुखमरी और अंधेरे भविष्य के रूप में कोरोना विषाणु बहुतों का उम्र भर पीछा करता रहेगा। बहुत सारे युवक विदेश गए थे, चार पैसे कमा कर अपनों को बेहतर जिंदगी देने के लिए। मगर न विदेश अपने हुए, न शहरों ने उन्हें अपनाया। देखते ही देखते इस विषाणु ने संक्रामक होकर इस विकल्प को आदमखोर जंगलों में तबदील कर दिया। अब जिस नई जिंदगी की तलाश में गए थे, वह पुरानी कराहती जिंदगी से भी अधिक बदतर बन गई। जिन प्रासादों के साए में जीने के सपने देखे थे, उनकी ऊंची चोटियां स्वयं भयग्रस्त हो सिर छिपा रही हैं। मां की सुरक्षित गोद पहले गांव-घरों से छिनी, अब देश-विदेश के महानगरों में खांसते-खांसते बेदम हो गई है।
यह कोरोना तो खत्म हो ही जाएगा, लेकिन उस विषाणु से कैसे निपटोगे, जो इस देश ही नहीं, पूरे विश्व की बहुसंख्या का बरसों से पीछा कर रहा है। पिछली पौन सदी से इस देश की पौनी जनता ने पल-पल रूप बदलते इन विषाणुओं से छुटकारा पाने के सपने देखे हैं। ये सपने इन्हें नेताओं के भाषणों से मिलते हैं, उनकी शोभायात्रओं के नारों से मिलते हैं।
इन सपनों के पूरा होने की उम्मीद में वे उनकी राजसत्ता की पालकियों के कहार बनते हैं। लेकिन बदले में उनको क्या मिला? कुछ दम तोड़ती पंचवर्षीय योजनाएं, जिनकी हर यात्रा का बिगुल बजाने वाला योजना आयोग सफेद हाथी घोषित कर दिया गया। सफेद हाथी जलावतन हो गया। रूप बदला, अब उसका नाम रखा है, नीति आयोग, जिसके पास अभी तक न कोई स्पष्ट नीति है, न उसे लागू करने का मानचित्र। हां, इन समस्याओं पर समाधान का चिंतन अवश्य है।
यह चिंतन ही इस देश की भीड़ के लिए चिंता बन गया। रोजी-रोटी की चिंता, अपने और परिवार की भूख मिटाने की चिंता। इन्हें कौन-सा भविष्य दें? यहां तो रोटी, कपड़े और मकान की चिंता ही खता न हो सकी। आपने कोरोना का उपचार तो तलाश लिया, पर भूख, बेकारी, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी का इलाज नहीं तलाश पाए। हां, इलाज के नाम पर नारों की तश्तरी में परोस कर हमने नेताओं की इजारेदारी और वंशवाद का विषाणु अवश्य दे दिया। विषाणु से डरे हुए लोगों को कहा जाता है, घरों में बंद रहिए। उन गंदी बस्तियों में, जहां के घोटुलों में एक की जगह चार लोग एक-दूसरे पर लद कर जी रहे हैं। विषाणु से भयावह है पेट न भर पाने का आतंक, भूख से सिसक कर दम तोड़ देने की आशंका।
यह आशंका जहरीले विषाणुओं से अधिक प्रबल होकर उन्हें डस रही है। जो विषाणु नजर नहीं आते, उनके संक्रमण की संभावना से अधिक साफ नजर आती है आंतड़ियों को ऐंठती हुई भूख, बेकार हाथों की वजह से साक्षात नाचती मौत की आमद। फिर किसी सुरक्षित गोद की तलाश में लोग अपनी पुश्तैनी मिट््टी और धरती की गोद की ओर लौट रहे हैं। इन्हें लंगरों की मुफ्त खिचड़ी के लिए गिड़गिड़ाने का भविष्य नहीं चाहिए। इनके निकम्मे हो गए हाथों में काम करने का अपार बल है।
यह कोरोना विषाणु विदा हो जाएगा, जैसे इसके पूर्वज विदा हुए थे इससे पहले। मगर इन वंचितों की भूख, बेकारी को बढ़ाते, इनके जीवन को अभिशाप बनाते, चोर बाजारियों, महंगाई के ठेकेदारों, निर्माण अनुदानों के दलालों को विदा करना है। एक विषाणु के विदा होने पर दूसरा विषाणु बनने के प्रयास में लगे समाज और देश के इन छद्म सिपहसालारों के मुखौटे नोचने पड़ेंगे।
अगला वक्त मास्क पहनने का नहीं, इन्हें उतार कर धरती की मिट््टी से, गांव-घरों के आंचल से एक घरेलू और कुटीर उत्पाद व्यवस्था को जन्म देने का होगा। इस दानवकाय यांत्रिक जीवन से पैदा विषाणुों से छुटकारा पाना होगा। विषाणु को एक महामारी की लक्ष्मण रेखा में कैसे कैद करोगे? विषाणु तो देश के अंग-प्रत्यंग में फैल रहा है और सितम यह कि देश के लोगों को कहा जाता है कि इसे एक सामान्य व्यवहार की तरह झेलो। चाहे वह आपको हर पल घेरता हुआ सिफारिश तंत्र हो या रिश्वतखोरी, जो आपके हर बुरे काम को साध कर भला बना देती है।
प्रश्न यह है कि देश अवश्य गंडा-ताबीज के अंधेरों में इतने वर्षों से गुम है, लेकिन उसके ऊपर भ्रष्टाचार, भुखमरी, नौकरशाही के ये नए विषाणु क्यों लाद दिए कि लगता ही नहीं कि इन महामारियों से इस देश के लोगों को कभी छुटकारा मिलेगा। छुटकारा मिलने की रामबाण दवा नेता लोग अपनी राहतों, नारों और घोषणाओं से एक घुट््टी की तरह इस देश को पिलाते रहे, लेकिन देश के लोगों का कंकाल होता हुआ ढांचा, उतरा हुआ चेहरा और निर्जीव आंखें यह बताती हैं कि ऐसी घुट््िटयों का कोई प्रभाव नहीं हुआ, सिवाय इसके कि सत्ताधीश अपनी वंशवादी परंपरा के मोरपंखी सिंहासन पर बैठ कर और भी इतराते नजर आते हैं।