मीना बुद्धिराजा
जीवन का वास्तविक सौंदर्य उसकी भौतिक सफलता से कहीं अधिक महत्त्व रखता है, जिसकी पहचान हम मुश्किल से कर पाते हैं। सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा और सफल होने के लिए एक पूर्वनिर्धारित दिशा और उद्देश्य की लीक पर सभी चलने की कोशिश करते हैं, जिसके मानदंड भी एक समान होते हैं। पर इस सर्वमान्य अतिसाधारण मार्ग पर चलते हुए जीवन की विविधता, उसके प्राकृतिक स्वभाव का सौंदर्य और सार्थकता कहीं खो जाती है। जीवन में अंतर्निहित यह सौंदर्य ऊपरी और सतही नहीं, बल्कि बहुत गहरी चीज है, जिसके लिए वैसी ही अनुभव संपन्न दृष्टि चाहिए, जिसमें व्यापकता हो, विस्तार हो, संकीर्ण बंधनों से निकलने की उदार सोच हो और अपने व्यक्तित्व की बाह्य-आतंरिक स्वतंत्रता, मुक्ति की उत्कट आकांक्षा हो।
यही सौंदर्य और राग की दृष्टि किसी व्यक्ति और जीवन को विशिष्ट सृजनात्मक और कलात्मक बनाती है, जिसमें उन्मुक्तता और प्रवाह का गुण हो। यह सौंदर्यबोध ही उसके जीवन को लीक से अलग मौलिक रूप देता है। साधारण अनुभवों में से ही किसी असाधारण अर्थ को खोजने की अभिलाषा उसे नई संभावनाओं की ओर बढ़ाती है। जैसे नदी के प्रवाह की नियति अंत में विशाल और अपार समुद्र में समाहित होना है और वही उसका सहज सौंदर्य है। मगर शहरों में वह दलदल के रूप में अवरुद्ध कर दी जाती है और उसकी जीवतंता का सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
मानवीय जीवन की भी एक आतंरिक प्रकृति है, जिसे बाधित करके एक सीमित ढांचे में ढाल कर उसका विकास नहीं हो सकता। यह अस्तित्व को समस्त बाह्य दबावों और मानसिक बंधनों की गुलामी से मुक्त करने की सहज प्रकृति है, जिसे उपभोक्तावाद की चरम संस्कृति और सफलता के पैमानों के लिए हमने खो दिया है। यह आत्मसंभावनाओं के क्षितिज का विस्तार करने वाली सौंदर्य दृष्टि है, जिसमें प्रकृति से भी प्रेरणा का अंश है, अनुभव के विविध रूप-रंग हैं, जीवन से जुड़े बहुत से प्रश्न हैं, जिज्ञासाएं हैं। आज के तीव्रता से बदलते परिवेश में जीवन के सौंदर्य के इस स्वप्न को फिर से देखने और जीने की जरूरत है।
किसी ऊंचे पद पर पहुंचने की एकमात्र महत्त्वाकांक्षा, भौतिक सुख-सुविधाएं जुटा लेना, जीवन में व्यवस्थित हो जाना और भविष्य की सुरक्षा को निश्चित करने के उद्देश्य को जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लेना ही जीवन के इस दुर्लभ सौंदर्यबोध से वंचित और इससे रहित हो जाना है। कला, संगीत, दर्शन जैसे क्षेत्र इसके बिना अपना विकास कर ही नहीं सकते।
यहां निश्चित और सीमित दृष्टि से ज्यादा स्वतंत्र सोच, अनिश्चितता और संशय अधिक सार्थक सिद्ध होते हैं और अपने विस्तार के नए विकल्प दिखाते हैं। इस दृष्टि के भीतर से जो जीवन जन्म लेता है, उसमें संघर्ष ही जीवन को रचता है, जिसमें बहुत-सी छूटी हुई जगहें और संवेदनाएं भी अपना स्थान पाती हैं, जिन्हें बहुत ज्यादा सुख-सुविधाएं पाने की आकांक्षा में हमने छोड़ दिया है।
इस नितांत आत्मकेंद्रित समय में जीवन का जो स्पंदन, मानवीय आभा और गहरी सौंदर्य दृष्टि का आकाश निंरतर सिकुड़ता जा रहा है, उसके लिए अटूट जीवन राग का होना जरूरी है। जैसे हरे होते पत्ते निरंतर सूर्य की किरणों को देखते हैं, लेकिन साथ ही अपनी जड़ों, अपनी मिट्टी और अपनी नमी को भी अनुभव करते हैं, उससे हमेशा जुड़े रहते हैं। यह प्रकृति की प्रक्रिया ही नहीं, मनुष्य की जीवनी शक्ति और उसके प्रति गहरे विश्वास का भी नियम है। जीवन सिर्फ निर्जीव तथ्यों, वस्तुओं से ही निर्मित नहीं, बल्कि तमाम जड़ता और खालीपन के विरुद्ध उसकी उर्वरता और सहजता को गतिशील बनाए रखने का निरंतर प्रयास है।
मानव समाज ने जो भी विकास किया है, उसमें प्रकृति अनिवार्य रूप से शामिल थी, पर सभ्यता के भौतिक विकास ने प्रकृति के सभी स्रोतों की संभावनाओं को भी निर्वासित कर दिया है। इसलिए बाह्य विकास के साथ मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता भी धीरे-धीरे विलुप्त होती गई है। सिर्फ उपभोग के लिए कृत्रिम, निर्मम और जटिल यथार्थ की प्रतिस्पर्धा की इन अंतहीन परिस्थितियों में क्या मनुष्य अपनी खोई हुई सहज स्वच्छंद प्रवृत्ति की आंतरिक चेतना को फिर से प्राप्त कर पाएगा।
अपनी बुनियादी अस्मिता के उस सुखद उल्लास, प्रेम, हर्ष के मधुर क्षणों को क्या फिर से जी सकेगा। इसलिए जीवन और अस्तित्व को उन नियमों से संचालित किए जाने की जरूरत है, जिसमें स्वतंत्र आधार भूमि पर कला और विचार को फिर से अनुभव किया जा सके। एक ऐसी मानवीय सामाजिक व्यवस्था, जिसमें व्यक्ति को उत्तर-आधुनिकता के अकेलेपन, आत्मनिर्वासन और प्रकृति से अलग छूटे हुए अस्तित्व की पीड़ा का शमन करके जीवन के राग और सौंदर्यबोध को बचाया जा सके तथा इसमें सहायक सार्थक उपादानों की खोज की जा सके।