रजतरानी मीनू

चिकित्सक को दूसरा ईश्वर कहा गया है। वे मरीज के उपचार की शपथ लेते हैं। लेकिन जब से चिकित्सा क्षेत्र में निजीकरण बढ़ा है, ठगी और लापरवाही कुछ ज्यादा ही बढ़ गई लगती है। हाल में, एनसीआर में एक डेंगू की मरीज लड़की के इलाज का बिल सोलह लाख रुपए लेने के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। यह घटना मिसाल है कि किस तरह निजी अस्पतालों को सिर्फ अपने पैसों की वसूली से मतलब होता है, मरीजों की जान की फिक्र बिल्कुल नहीं रहती। इतना पैसा खर्च करने के बावजूद जिस परिवार के बच्चे की मौत हो गई, उस पर क्या बीती होगी! उस परिवार ने जाने किस कठिनाई से इतनी मोटी रकम अस्पताल को चुकाई होगी? यह बहुत चिंतित करने वाली बात है। यह घटना निजी चिकित्सकों और चिकित्सालयों की अंधी व्यावसायिकता को बेनकाब करती है।

इसी तरह, एक और दिल दहलाने वाली घटना सामने आई है। दिल्ली के शालीमार बाग में स्थित एक नामी अस्पताल के एक डॉक्टर ने नवजात जुड़वां बच्चों में से एक को मृृत घोषित कर दिया। बाद में पता चला कि वह बच्चा जीवित था। यह सीधा चिकित्सकों की लापरवाही का मामला था। इस नामी अस्पताल में जहां मरीज को मोटी रकम खर्च करने के बाद ही दाखिल किया जाता है, चिकित्सकों की ऐसी लापरवाही और संवेदनहीनता समझ से परे है। यह कैसा अस्पताल है, जहां किसी मरीज को मृृत घोषित करने से पहले ठीक से जांच करने की जरूरत तक नहीं समझी जाती।

इससे पहले भी आॅपरेशन के वक्त पेट में कैंची, तौलिया आदि उपकरण छोड़ देने की तमाम घटनाओं ने हमारा ध्यान चिकित्सीय लापरवाहियों की ओर खींचा है। इस तरह की घटनाएं जब होती हैं तो अक्सर कहा जाता है कि आरक्षण के जरिए अस्पतालों में नौकरी पाए लोग ही ऐसी गलतियां करते हैं, क्योंकि वे कम योग्य होते हैं। लेकिन देखा जा रहा है कि इस तरह की लापरवाही का आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। यह वास्तव में योग्यता से ज्यादा संवेदनशीलता का मामला है। असल में, संवेदनशीलता भी अपने में एक योग्यता है।
कुछ दिनों पहले यह खबर भी आई थी कि एक व्यक्ति अपनी पत्नी की लाश को सत्रह किलोमीटर तक अपने कंधों पर ढोकर ले गया। किसी एंबुलेंस या अन्य वाहन का प्रबंध न अस्पताल ने किया और न उसके पास इतने पैसे थे कि वह खुद प्रबंध कर पाता। एक तरफ गरीबी के कारण ठीक से इलाज न करा पाने वाले मरीज दम तोड़ रहे हैं। मगर जो लोग सक्षम हैं उनके साथ भी नाइंसाफी हो रही है।

मैं खुद भी कई बार चिकित्सकों की लापरवाही की शिकार हुई हूं। आज के दौर में शायद ही ऐसा कोई हो जो चिकित्सकों के मनमानेपन का शिकार न हुआ हो। कुछ सालों से आजकल आॅनलाइन ठगी का धंधा भी पनप रहा है। कुछ दिनों पहले मैंने अपने पति के गले के इलाज के लिए आॅनलाइन एक डॉक्टर का पता खोजा। जब हम उनके पास पहुंचे तो अस्पताल के नाम पर उनके पास महज एक कमरा था और सहायक के तौर पर सिर्फ एक नाबालिग बच्चा। उन्होंने दो हजार रुपए फीस पहले ही जमा करा ली थी। उन्होंने ‘मेजर आॅपरेशन’ की सलाह दी और ढाई लाख का खर्च बताया। बोले, ‘मैं इन्हें एक बड़े अस्पताल में बुलाऊंगा, वहां आॅपरेशन हो जाएगा।’

हमने खर्च का हिसाब सुना और वहां से भाग आए। लगा कि दाल में कुछ काला है। जब आॅपरेशन दूसरे अस्पताल में कोई और डॉक्टर करेगा तो हम इन्हें बीच में क्यों रखें! हम तो खैर जैसे-तैसे उनके चंगुल से निकल आए। अब बड़ा संकट था कि आॅपरेशन कराना ही है तो कहां, किससे करवाया जाए? सरकारी अस्पतालों में जांच के पूरे यंत्र नहीं। भयावह लंबी लाइनें अलग। निजी अस्पतालों के खर्चे बेशुमार। फिर आॅपरेशन की जरूरत है भी या नहीं, यह भी तय नहीं।

आखिरकार एक चिकित्सक ने बताया कि इसमें आॅपरेशन की जरूरत नहीं है। सुन कर हम खुश भी थे और अवाक भी। किस डॉक्टर पर भरोसा करें, किस पर न करें? चिकित्सा के क्षेत्र में आज कदम-कदम पर इतनी लापरवाही और धोखाधड़ी है कि समझ में नहीं आता कि आदमी करे तो क्या करे। चिकित्सकों की योग्यता और अयोग्यता तो अपनी जगह है, लेकिन आज के दौर में बढ़ रही ठगी और बेईमानी ने इलाज कराने वालों को मुसीबत में डाल दिया है। जांच के नाम पर एक पूरा उद्योग खड़ा हो गया है। डॉक्टर छोटी-मोटी बीमारियों में भी बड़ी-बड़ी जांच लिख देते हैं। सरकारी अस्पतालों में जांच की व्यवस्था नहीं होती, जहां व्यवस्था है भी तो वहां इतनी लंबी तारीख जांच की दी जाती है कि तब तक मरीज जीवित बचेगा भी या नहीं, इसी का ठिकाना नहीं होता। भारत जैसे गरीब मुल्क में चिकित्सा की यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। लगता है जैसे आम आदमी के जीवन से खेल खेला जा रहा हो!