कई बार यथार्थ पर विश्वास नहीं करने का मन करता है। कई बार यथार्थ घटनाएं किसी काल्पनिक सिनेमा के दृश्य की तरह आंखों के सामने हो रही होती हैं। मन छटपटाता है, गुस्से से भर उठता है, लेकिन मजबूर आंखों से सब देखने, क्षुब्ध और दुखी होने की लाचारी ही हिस्से आती है। मसलन, टीवी पर किसी गांव का एक दृश्य था। एक पिता ने अपनी अठारह साल की बेटी को गांव के ही किसी पुरुष के साथ देखा। उसके बाद उसने दो दिन इंतजार किया। फिर उसने बेटी का गला दरांती से काट डाला और उसका सिर हाथ में लिए पुलिस स्टेशन जाकर आत्मसमर्पण कर दिया। पूरा गांव और रास्ते के लोग कटा सिर हाथ में लटकाए जाते उस व्यक्ति को अवाक् होकर देखता रहा। उसकी आंखों में जो नफरत और सुकून दिखा था, उसे याद कर अब भी मैं सिहर जाती हैं… मेरी रगों में तब खून जमने लगा था।

ऐसी घटना अब कोई चौंकाने वाली बात नहीं रह गई हैं। ऐसी घटनाएं समाज की गति और दशा के बारे में बताती हैं। ऐसा लगता है कि इंसान अपनी संवेदनाओं की तिलांजलि दे चुका है। मोह, ममता, सोच-समझ, विवेक आदि से दूर होता जा रहा है। निदा फाजली की एक मशहूर गजल का एक शेर है- ‘सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ/ अपनी ही लाश का खुद मजार आदमी’! कम से कम आज की दुनिया देख कर तो यह एक तल्ख हकीकत लगती है। इंसान आज अपनी ही भावनाओं और संवेदनाओं का दोहन कर अनजाने राह पर अबूझ मंजिल की ओर बढ़ता जा रहा है। कर्ता, कर्म और फल तीनों वह खुद ही है। अनेक बार अपने अनैतिक, अव्यावहारिक और असामाजिक कृत्यों को सही ठहरा कर खुद अपनी पीठ भी थपथपा ले रहा है!

यह सच है कि इस तरह का नकारात्मक बदलाव एक दिन में नहीं हुआ है। यह प्रक्रिया मंथर गति से सालों चलती रही, फिर आज विकराल समस्या बन कर सामने मुंह बाएं खड़ी है। संवेदना सार्वभौमिक, बल्कि व्यक्तिनिष्ठ भावना है, जिसका उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण नहीं, बल्कि समस्त सजीवों के प्रति उदारता है। मगर आज उसकी झलकी भी कहां दिख रही है! मीलों तक चलते लाखों मजदूर के थके पैरों पर नीरसता, अपनों की लाश पीठ पर या ठेले पर लाद कर कई किलोमोटर चल कर अस्पताल से श्मशान जाते जाते लोग, अपने ही घर में असुरक्षित बेटियां, सड़क पर किसी जरूरतमंद की मदद के बजाय सेल्फी लेते लोग कम से कम सभ्य समाज का हिस्सा कहलाने योग्य तो नहीं ही हैं।

हमने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जो संवेदनाओं, नैतिकता और मानवीय मूल्यों के आधार पर खड़ा हो। पर वक्त-बेवक्त और लगातार इसमें इतने सेंध लग रहे कि यह परिकल्पना ही कठघरे में आकर खड़ी हो गई है। समाज के इस कुत्सित चेहरे के मूल कारणों में मानसिक स्वास्थ्य, अप्रकट और दबी इच्छाएं, झूठा दंभ और लड़कपन दिखता है। वेदना, पीड़ा या अन्याय के प्रति प्रतिक्रिया का जो तरीका आसान लग रहा वह वास्तव में कई सवालों को लिए हुए है। ऐसे मामलों में तो कई बार पीड़ा या कष्ट वास्तविक होती भी नहीं है। इस तरह के झूठी इज्जत के नाम पर हत्या के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं, जिसमें हम अपनों को मौत के घाट उतारने में जरा भी हिचकिचा नहीं रहे हैं। समस्याओं को शुरुआती दौर में ही समाधान नहीं देना और सहन करते रहना भी घरेलू द्वेषों के कारण में से एक है। एक पक्ष सहन की सीमा पार तक प्रतिक्रिया नहीं देता और दबी हुई खामोशी जब फूट रही तो ऐसे अतिरेक को जन्म दे दे रही जो बेहद त्रासद साबित होती है।

कई बार घर के सदस्य कुंद सोच के शिकार भी दिखते हैं। जिस तरह पिता ने बेटी का गला रेता, क्या वैसी ही स्थिति में बेटा होता तो वे ऐसा ही करते? दरअसल, इस समाज ने घर-समाज को इज्जतदार बनाने की जिम्मेदारी बेटियों के सिर ही मढ़ा है। स्वीकृत दृष्टिकोण यह है कि बेटी बिना कोई लांछन लगे ससुराल चली जाए और वहां से उसकी अर्थी ही निकले तो कुल-मर्यादा और साख ऊंची रहती है। दूसरी ओर, कच्ची उम्र में समझ की कमी ने अनेक परिवारों को खत्म कर दिया है। ऐसे में खुद बेलगाम और अमानवीय होने के बजाय बदलते परिवेश में इस उम्र के बच्चों के प्रति माता-पिता की जिम्मेदारी दोगुनी हो गई है। इसे समझने की जरूरत है कि प्रेम मानवीयता को समृद्ध ही करता है। इज्जत की सामाजिक परिभाषा ने अक्सर व्यक्ति की संवेदना छीन कर उसे अमानवीय बना दिया है।

अस्वीकृत दर्द और तकलीफ जख्मों को और गहरा कर जाती है और तकलीफों पर ध्यान उन पर मरहम लगाती है। समस्याओं को जनने वाली तकलीफें खामोशी के लंबे सन्नाटे को चीर कर जब चीख बन कर गूंजती है, तब प्रशासन और समाज को जागना ही होता है। ऐसा कोई भी मुद्दा या विषय जिस पर जान ले लिया जाए या जाने दे दिया जाए, वह छोटा तो नहीं हो सकता। मुद्दों को लाठी या बल के नीचे रौंदना न तो नीतिसंगत है और न ही न्यायसंगत! समाज को हर स्तर पर चेतने, स्वीकारने और सकारात्मक परिवर्तन की दरकार है।