अजेय कुमार

जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: बेटे को तरक्की पर जब उसकी कंपनी ने एक महंगा मोबाइल फोन दिया तो मुझे डर लगा रहता था कि यह कहीं खो न जाए। हुआ वही। उस दिन मैं और बेटा रात को चंडीगढ़ से आए। स्टेशन से बाहर निकले तो बेटे ने कहा कि टैक्सी कर लेते हैं, मगर मुझे लगा कि मेट्रो से भी निकल सकते हैं। मेट्रो पर चढ़ते वक्त कुछ लड़कों ने बेटे के रास्ते में थोड़ी रुकावट पैदा की, जिससे उसका ध्यान खुद को संभालने में लग गया और दो मिनट बाद पता चला कि उसका मोबाइल फोन जेब से निकाल लिया गया है। बेटे को तो अफसोस हुआ ही, मुझे लगा कि अगर उसका सुझाव मान लेता तो शायद मोबाइल सुरक्षित रहता।

इस अपराधबोध के कारण लगा कि अब मुझे मोबाइल ढूंढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। एफआइआर लिखवाने कश्मीरी गेट स्थित मेट्रो पुलिस स्टेशन गया। उन्होंने मुझसे मोबाइल का पूरा विवरण, जिसमें उन्होंने फोन के प्रकार, रंग और आइएमइआइ नंबर भी मांगा। बताया गया कि यह नंबर मोबाइल को ट्रैक करने में सहायक होता है। जैसे ही कोई इस मोबाइल में अपना सिम कार्ड डालेगा, पुलिस को पता चल जाएगा आदि। एसएचओ ने आश्वस्त किया कि एफआइआर का पूरा ब्योरा इंटरनेट पर डाल दिया गया है। लगभग बीस दिन बाद मुझे एक विद्यार्थी का फोन आया। उसने कहा कि वह भुवनेश्वर के पास बालासोर से बोल रहा है, वह इंजीनियरिंग की परीक्षा देने दिल्ली गया था; वहीं किसी ने यह फोन उसे तीन हजार रुपए में बेच दिया। फिर उसने बताया कि उसने जैसे ही अपना सिम डाला, मेट्रो पुलिस से उसे फोन आ गया। उन्होंने मुझे आपका फोन नंबर दिया और कहा कि यह मोबाइल आपका है।

मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। लगा कि अब भी ईमानदार लोग इस दुनिया में हैं। मैंने उस विद्यार्थी को धन्यवाद दिया। उसने कहा कि इसके लिए मुझे कम से कम तीन हजार रुपए तो देने ही होंगे। लगभग चालीस हजार रुपए के मोबाइल फोन के लिए यह रकम बहुत मामूली लगी। उस विद्यार्थी से पूछा कि यह रकम कैसे उस तक पहुंचाई जाए। उसने कहा- ‘कृपया मेरा अकाउंट नंबर नोट कर लें, इसमें तीन हजार रुपए डाल दें। जैसे ही यह पैसा मेरे अकाउंट में आ जाएगा, मैं आपका मोबाइल कुरियर कर दूंगा।’

मैंने सोचा कि कुरियर से कहीं फोन खो न जाए, इसलिए क्यों न कोई और तरकीब लगाई जाए। भुवनेश्वर में रहने वाले अपने एक मित्र से संपर्क किया और अपनी समस्या बताई। उन्होंने कहा कि शनिवार को उन्हें बालासोर जाना है, वे उस विद्यार्थी से मिल कर तीन हजार रुपए देकर मोबाइल ले लेंगे। वे मित्र वादे के अनुसार बालासोर गए, विद्यार्थी का फोन नंबर और पता उन्हें मैंने दे दिया था। लेकिन वहां उस विद्यार्थी के नाम का कोई लड़का नहीं रहता था, न उसका फोन लग रहा था। फोन लगाने पर ओड़िया भाषा में संदेश मिला कि फोन बंद है। तब लगा कि दाल में कुछ काला है। मैंने सोचा कि जिस फोन नंबर से मुझे फोन किया गया, क्यों न मेट्रो पुलिस स्टेशन जाकर वह फोन नंबर उन्हें दे दूं, ताकि उस विद्यार्थी का सही पता ढूंढ़ा जा सके। मैं उसी एसएचओ के पास गया, जिसने एफआइआर लिखी थी।

उसने धैर्य से बात सुनने के बाद सारा रहस्य बताया। उसने कहा कि जिस युवक ने आपको फोन किया है, वह फोन भी चोरी का है। उस फोन के पते पर वह विद्यार्थी आपको नहीं मिलेगा। वह दिल्ली में रह कर ओड़िशा का मोबाइल नंबर इस्तेमाल करता है। उसके पास आपका मोबाइल नहीं है। यह सूचना वह इंटरनेट से लेता है कि किस-किस व्यक्ति का महंगा मोबाइल गुम हुआ है। वहीं से उसे आपका फोन नंबर भी मिलता है। जो खाता नंबर उसने आपको दिया, उसमें अगर आप तीन हजार रुपए डाल देते तो वह रुपए निकाल कर उसे बंद कर देता। अच्छा हुआ आपने पैसे नहीं डाले। इन लोगों ने बैंक खाते भी दूरदराज गांवों में खोल रखे हैं, जिन्हें ढूंढ़ पाना लगभग असंभव है। एसएचओ ने मुस्कराते हुए कहा कि उस युवक ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आप दिल्ली में बैठ कर भुवनेश्वर से उतनी दूर एक आदमी को पैसा देकर भेज देंगे।

उसे मैं क्या बताता कि यह तो मैंने एक मिनट के लिए भी नहीं सोचा कि युवक मुझे ठग रहा है। अगर भुवनेश्वर में मेरा कोई जानकार न होता तो मैं भी तीन हजार रुपए उसके खाते में डाल देता। आज मैं सोचता हूं कि पारदर्शिता कभी-कभी बड़ी महंगी साबित होती है। पुलिस को अगर मेरी एफआइआर इंटरनेट पर डालनी थी तो क्या इसका कोई पासवर्ड होना चाहिए था? खैर, खोए हुए मोबाइल का इंतजार आज भी है!

 

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