सुजाता तेवतिया
टीवी के अन्य कार्यक्रमों की तरह ही विज्ञापन भी एक स्वतंत्र कार्यक्रम का दर्जा पा चुके हैं। वे अब सिर्फ रिक्त स्थान नहीं भरते। वे मुख्य कार्यक्रम से अधिक समाज का दोतरफा आईना हैं। चाहें तो विज्ञापन बनाने वाले समाजशास्त्री बनने के दावे भी पेश कर सकते हैं। समाज-संरचना की बारीकियों और कमजोर कड़ियों को पकड़ना वे जानते हैं। एक तरफ वे रूढ़ छवि को पुष्ट कर रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ विज्ञापन ‘स्टीरियोटाइप’ को तोड़ने का काम भी कर रहे हैं। यह खेल भले ही उनका एक नया पैंतरा भर हो, क्योंकि किसी उत्पाद विशेष का लक्ष्य अक्सर एक विशिष्ट शहरी-आधुनिक सोच रखने वाला दर्शक होता है, न कि सर्व-सामान्य। साधुवाद कि वे अंगुली सही जगह रखने में कामयाब हो रहे हैं। जरूरत बस इस बात की है कि समाज और परंपरा में छिपे उनके अर्थ की गहराइयों तक जाने के लिए विज्ञापनों को महज दर्शक की तरह न देख कर उनकी अंतर्पठनीयता संभव की जाए।
जिस विज्ञापन लोक में समाज की आधी आबादी भ्रमित है कि आत्मविश्वास के लिए गोरेपन की क्रीम लगा कर आधुनिक हो जाए या कुशल गृहिणी बनने के लिए चटपट बरतन मांजने का द्रव्य ले आए, वहीं इक्का-दुक्का विज्ञापन स्त्री विमर्श का एक नया मुहावरा गढ़ने का भी काम कर रहे हैं। ‘तुम्हारा खाना आ गया, अब उसे खाओ, मेरा सिर मत खाओ!’ एक पित्जा ब्रांड के टीवी विज्ञापन में पत्नी के ऐसे जवाब से पति सन्न रह जाता है और पत्नी मुस्करा कर फोन रख देती है। विज्ञापन खत्म होने पर चिंतन आरंभ होता है। लगता है कि ठीक ही है, पति को अवाक हो भी जाना चाहिए। ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ जैसी रूढ़ियां गढ़ती कहावतों को अब निरर्थक हो ही जाना चाहिए। कॅरिअर को लेकर सजग पत्नी के बगैर एक दिन घर पर रहने पर जिस पति को अपना ही घर अनजाना और पराया लगता हो और घड़ी-घड़ी, एक-एक बात उसे पत्नी को फोन करके पूछनी पड़े कि ‘चायपत्ती कहां है, प्रेस वाले को बचे हुए पांच रुपए देने हैं या नहीं, लाइटर कहां रखा है, तौलिया नहीं मिल रहा’ से लेकर हर बात में उसके लिए घर एक बड़ा सवालिया निशान है।
हैरानी की बात यह है कि इसमें अपने ही घर में एक मेहमान की हैसियत से रहने वाले उस पति को इसका कतई अफसोस नहीं है और न ही यह ‘एक दिन’ उसके लिए कोई चौंकाने वाला दिन है। बल्कि एक निर्लिप्त भाव से वह केवल बेहद जरूरी सिर पर आ पड़े काम निबटा रहा है। पति होने के कारण पत्नी को कहीं और कभी भी फोन कर सकने के समाज-प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दफ्तर में काम कर रही, बॉस के सामने खड़ी पत्नी को फोन करते हुए झिझकता या शर्मिंदा नहीं होता।
विचित्र है कि ‘घर’ के साथ इस असंपृक्त भाव में रहना किसी पति या ऐसे ही किसी अन्य सदस्य के लिए संभव कैसे होता है! क्या इसका कारण यह हो सकता है कि कागज पर घर के ‘मालिकाना’ हक को लेकर कोई संशय उस पति के मन में नहीं है, इसलिए वह घर की ‘मालकिन’ कह कर स्त्री को उसकी वास्तविक (?) जगह पर न चुनौती देना चाहता है, न उसे इसकी जरूरत ही है, क्योंकि पति की इस असंपृक्ति पर समाज बजाय प्रश्नचिह्न लगाने के उसका पूरी ताकत से समर्थन ही करता आया है। यह कोई रहस्य की बात नहीं कि दफ्तर संभालने के साथ साथ गोद लिए गए इस बालक, जो घर का असली मालिक है, को प्यार करना और उसे घरेलू पचड़ों से दूर रखना भी पत्नी की ही जिम्मेदारी है, भले ही यह काम उसे दफ्तर में बैठे-बैठे उसके लिए खाना भिजवा कर करना पड़े।
इन पचड़ों से बचते-बचाते, केवल अपना मानसिक-शारीरिक स्पेस घेरते-घेरते ऐसे पति अपने घर में अजनबी हो जाने की कोई पीड़ा अगर कभी महसूस करते भी हैं तो शायद वह वृद्धावस्था में जाकर ही होता है। जब नौकरी से मुक्त होकर उन्हें बची हुई जिंदगी उसी घर में बितानी होती है जहां के पचड़ों से वे उम्र भर भागते रहे थे। उस समय कागजी मालिक होने से मन नहीं बहलता और घर की साम्राज्ञी स्त्री हो ही चुकी होती है। इससे कहीं बेहतर है कि समय रहते कोई पति इस बात के लिए भी चेत जाए कि बुढ़ापे के पीएफ या बॉन्ड के साथ-साथ कुछ श्रम की पूंजी घर में निवेश कर ले, अपने घर और उसके कामों से भी एक बॉन्ड का करारनामा दस्तखत कर ले और या तैयार रहे यह सुनने के लिए कि ‘तुम्हारा खाना आ गया, उसे खाओ, मेरा सिर मत खाओ!’
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