देहरादून में साल 2009 में पुलिस के द्वारा किया गया एक एनकाउंटर सवालों में घिर गया था। इस एनकाउंटर में मारे गए रणबीर सिंह के माता-पिता ने पुलिस को बताया कि मृतक उनका बेटा था न कि कोई अपराधी। वहीं एनकाउंटर के बाद सामने आई पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने पुलिस की सारी पोल पट्टी खोल दी थी। ऐसे में आपको बताते हैं कि आखिर हुआ क्या था?
तारीख थी 3 जुलाई और साल था 2009। इसी दिन देहरादून पुलिस ने एक एनकाउंटर को अंजाम दिया। इस एनकाउंटर के बारे में पुलिस ने बताया था कि 3 जुलाई को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल देहरादून आ रही थी। ऐसे में इलाके में हाई अलर्ट घोषित था। शहर भर में नाकाबंदी और चेकिंग की जा रही थी।
पुलिस के मुताबिक, इसी चेकिंग के दौरान सर्कुलर रोड में मौजूद तत्कालीन आराघर चौकी इंचार्ज पीडी भट्ट एक मोटरसाइकिल पर आ रहे तीन युवकों को रोकते हैं। लेकिन यह तीनों युवक चौकी इंचार्ज पर हमला कर उनकी पिस्टल छीन लेते हैं। पुलिस ने बताया कि घटना से दो घंटे बाद इस अपराध में शामिल एक युवक को लाडपुर के जंगल में ढेर कर दिया गया, जबकि दो युवक भागने में सफल हो गए। एनकाउंटर में ढेर युवक की पहचान रणबीर निवासी बागपत के रूप में की गई थी।
राष्ट्रपति के दौरे के समय एनकाउंटर होने के खबर फ़ैल गई और इसको अखबारों में मुख्य रूप से जगह दी गई। ऐसे में जब रणबीर के परिजनों को यह बात पता चली तो वह देहरादून पहुंचे और पुलिस के एनकाउंटर को फर्जी बता दिया। परिजनों ने कहा कि उनका बेटा रणबीर देहरादून में एक कंपनी में इंटरव्यू के लिए आया था। इसके बाद परिजनों ने पुलिस की कार्यशैली के विरोध में धरना शुरू कर दिया तो पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया।
राज्य सरकार पर बढ़ रहे दबाव और पुलिसिया एक्शन पर उठते सवालों के बीच मामले की जांच सीबी-सीआईडी को सौंप दी गई। वहीं पांच जुलाई को सामने आई पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने सारा राज खोल दिया। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि मौत से पहले रणबीर को बहुत बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया था। उसके शरीर पर 28 चोटों के अलावा करीब 22 गोलियां लगने की बात कही गई थी।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने पुलिस की सारी कहानी को सिरे से ख़ारिज कर दिया। यह एनकाउंटर मामला इतना बढ़ा कि 31 जुलाई को जांच के लिए सीबीआई की टीम देहरादून पहुंची और जांच शुरू की। पुलिस ने इस एनकाउंटर में 29 राउंड फायरिंग का दावा किया था, लेकिन मृत युवक का काला शरीर बहुत कुछ बयां कर रहा था। सीबीआई की रिपोर्ट ने भी पुलिस की मनगढ़ंत कहानी को पोल खोल दी। मामला कोर्ट गया तो 9 जून, 2014 को तीस हजारी कोर्ट ने 17 पुलिसकर्मियों को हत्या, अपहरण, आपराधिक साजिश रचने व उसे अंजाम देने और सबूत मिटाने के मामले में दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी और एक आरोपी को बरी कर दिया गया था।
हालांकि, हत्या, अपहरण और सबूत मिटाने के मामले में बरी हुए जसपाल सिंह को IPC की धारा 218 के तहत गलत सरकारी रिकॉर्ड तैयार करने में दोषी करार दिया था। वहीं बाद में जब इस मामले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई तो 4 साल तक चली सुनवाई में 17 में से 11 पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया गया था और अन्य की उम्रकैद की सजा बरकरार रखी गई थी। लेकिन साल 2009 में हुए इस फर्जी एनकाउंटर के बाद पुलिस की कार्य प्रणाली पर ढेरों सवाल खड़े हुए थे।