शचीन्द्र आर्य

हम कभी सपनों में भी दिल्ली नहीं आ पाते, अगर हमारी दादी ने हमारे पापा को बाहर पढ़ने के लिए भेजा न होता। हम दिल्ली रोज सुनते, पर कभी इसे देख नहीं पाते। हम भी वहीं चार-पांच साल पहले तुमसे शादी और दो बच्चों के बाद या तो चाचा की तरह बंटवारे में अपना हिस्सा लिए खुद को कोसते ‘चिचड़ी चौराहे’ पर पान की ढाबली खोले बैठे होते या मनरेगा हमें भी लील गया होता। कभी ऐसा भी होता कि माता-पिता से लड़-झगड़ लेने के बाद गुस्से में दिल्ली होते हुए लुधियाना पंजाब में कहीं कपड़े की दुकान पर तह लगा रहे होते या फिर संदीप की तरह पूना भाग जाते। वहां से पैसा भेजा करते। फिर कभी लौट कर गांव के लड़कों की तरह कैसे भी करके(?) सऊदी जाने के खयाल में डूब जाते।

ऐसे में अगर कभी गलती से दिल्ली आ भी गए होते, तो पहाड़गंज रेलवे स्टेशन की तरफ रिक्शा खींच रहे होते। थोड़ा नशा भी करने लगते तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाता और न राई का पहाड़ हो जाता। एक मोबाइल तुम्हारे पास भी रख छोड़ते, जिस पर कभी किसी हवलदार की झन्नाटेदार लाठी खाने के बाद हो रहे दर्द और सूज गए पैर पर हल्दी लगा रंग तुम्हें बता रहे होते। उस पल हम दोनों को एक साथ जिंदगी, जिंदगी न लगकर नर्क का अहसास करा जाती। तुम अगली गाड़ी से ही यहां आ जाना चाहती, पर न हमारे पास इतने रुपए होते, न उस कमरे में इतनी जगह कि हिम्मत करके तुम्हें तुरंत दिल्ली बुला लेते। एक-एक दिन पत्थर की तरह भारी लगते। जिन्हें उठाते-उठाते कमर दर्द ‘आयोडेक्स’ या ‘मूव’ से ठीक हो जाने की जद से काफी दूर निकल आया होता। फिर रिक्शे वालों के सपनों में कभी पीएचडी करने के खयाल नहीं होते। वहां किसी दुकान पर बीवी के लिए पेटीकोट सिलवाने में बच गए दस रुपए और किसी के हाथ माता-पिता के लिए कुछ पैसे भिजवा देने के सपने होते।

अगर ऐसा नहीं होता, तब वहीं बहराइच में पान वाली ढाबली बिठाने और शादी होने से पहले पटहरों की तरह बेरिया, जंगलिया बाबा, देवी पाटन से लेकर दरगाह मेले में फूफा जैसे या तो झंडी लेकर घूम रहे होते या बाबा की तरह मोहर्रम में तहाजियों के जुलूस में जलेबी की दुकान पर चालीसवें तक उधार मिठाई तौल रहे होते। कभी नहीं जान पाते जैसलमेर, राजस्थान में कहीं ‘पटवा की हवेली’ भी है। कोई सुंदरलाल पटवा नाम से किसी सरकार में मंत्री भी रहे हैं। इसी दिल्ली के पहाड़गंज में रामनाथ पटवा गली है। यमुना पार की दिल्ली में कितनी धर्मशालाएं, सामुदायिक भवन छितरे पड़े हैं। सदर बाजार में इनकी इतनी बड़ी-बड़ी दुकानें हैं कि चले जाओ तो सीधे मुंह बात भी नहीं करते। इधर कई पटवा अपने नाम के आगे ‘देवल’ लगाने लगे हैं। एमएन श्रीनिवास इसे ही ‘संस्कृतिकरण’ की प्रक्रिया कहते हैं। यह देवल ‘देओल’ का अपभ्रंश है। पता नहीं, इन्हें कब सनी और बॉबी देओल की तरह माना जाने लगेगा! या शायद कभी किसी फिल्म में ‘स्पॉटबॉय’ के नाम से रोल होता रहे और हमें पता भी नहीं चल पाए।

पटहरों का इतिहास कभी नहीं लिखा गया। प्रोफेसर तुलसीराम की ‘मणिकर्णिका’ में टिकुली-बिंदिया वाले पटवा सिर्फ एक पंक्ति में सिमट कर रह गए। सतीश पंचम पता नहीं कैसे इस बिसाती तक पहुंच गए। कुछ तस्वीरें उनके पास भी हैं। उनके गांव की हैं। नाम-पता नहीं। वह मैसूर के किसी अनाम से मंदिर के बाहर सोने की बूंदियों के साथ माला गूथने में लगे हुए हैं। पता है, हम लोग कभी दो-तीन पीढ़ी पहले बनारस से चल कर बहराइच क्यों पहुंचे थे? अब उसी बनारस से साल में दो बार फूफा सामान खरीदने जाते हैं। कितना अजीब है न! दादी होतीं तो जरूर कुछ बतातीं। जैसे पता नहीं, कितने साल पहले एक बार फैजाबाद के भंडारे की बात बता रही थीं और हम सुन नहीं रहे थे!

 

 

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